Tuesday, January 20, 2009

खोजते रहिए जवाब, सवालों से मिलेगा मुकाम.


याद कीजिए, जब आपने बोलना सीखा था. पहला शब्द क्या कहा था? जाहिर सी बात है मां या पापा ही बोला होगा. फिर हर बात पर सवाल पूछने का सिलसिला शुरू हुआ होगा, जिसका अहसास हमें भले ही ना हुआ हो पर मम्मी-पापा हर किसी रिलेटिव से यही कहते थे मेरा बच्चा तो बहुत सवाल पूछता है. उस वक्त हर एक बात के लिए हमारे जेहन में सवाल होते थे. रोड पर घूमते वेंडर्स और हॉकर्स हों या फिर मंदिर में पूजा करते पुजारी, सबके लिए हमारे पास सवाल होते थे. हम चाहते थे कि सच जवाब मिले, जो संतुष्ट करे.
जैसे-जैसे हमारा शरीर विकसित होता है और हम बाहर की दुनिया को देखने-समझते हैं, ढेरों सवाल भी खुदबखुद अपना वजूद पुख्ता करते जाते हैं. कभी सवाल टीचर्स की मार का सबब बनते हैं तो कभी शाबाशी भी दिलाते हैं. पर जहां तक मेरी समझ है, सवाल जिंदगी के लिए बहुत अहम होते हैं. जब तक सवाल हैं, जिंदगी जीने की एक वजह रहती है और अगर सवाल खत्म हो जाएं तो शायद जिंदगी में रस कम हो जाता है. सवाल ही हैं जो तरक्की का रास्ता दिखाते हैं, राहों पर आने वाली प्रॉब्लम्स से जूझने की हिम्मत देते हैं. यकीन मानिए जवाबों की तलाश बहुत ही एडवेंचरस होती है, कभी डूबिए सवालों में, उसका मजा कुछ और ही है.

Sunday, January 11, 2009

अ जर्नी टु हेप्पीनेस


ये नया साल मेरे लिए किसी पुराने साल की ही तरह है। हाँ, हर बार थोड़ा देर से लिखता था इस बार कुछ ज्यादा ही व्यस्तताएं रहीं। वक्त भाग रहा था, हम भी इसे पकड़ने की कोशिश में अपनी रफ्तार बढ़ा रहे थे। देर कर दी। सोचा था पहली तारीख को ही कलम तोड़ दूंगा। पर ये मानव स्वभाव मुझ पर भी हावी है। आलस की कोई सीमा नही है। कभी विचारों को एक रूपता न दे पाने की वजह से नही लिखा तो कभी सोच क्यों न कोई अच्छा विचार आए तो इस नए साल की शुरुआत करूँ। बहरहाल, नए साल में मैं कूद पड़ा हूँ नई उमंग और ख़ुद से किए कुछ नए वादों के साथ। आज कल काफी कुछ करने का मन करता है। रोज नए क्रिएटिव विचार खदबदाते हैं। सोचता हूँ दुनिया में अपना भी एक मुकाम होगा। वो भी मुकम्मल। फ़िर ये मुकाम यूँ ही तो हासिल होगा नहीं। सोच रहा हूँ क्यों न अपनी जरूरतों को भूल कर अपनी मेहनत को दूसरी दिशा दूँ। कभी कैट क्वालीफाई करने का ख्याल आता है तो कभी कुछ और करने का। जानते हैं क्यों। क्युकी मुझे खुशियों की तलाश है। काफी कुछ कर रहा हूँ , कुछ शुरू करने की भी सोच रहा हूँ। फ़िर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मन करता है कि अगर कुछ बन गया तो मैं भी एक बुक लिखूंगा। नाम रखूँगा अ जर्नी टु हेप्पीनेस।ऐसा ही कुछ सोच रहा था कि एक मूवी देखने को मिली। उसका नाम भी मेरी होने वाली किताब के नाम से मिलता जुलता था। सोचा क्यों न देखी जाए। हो सकता है अपने मतलब की हो। बस देख डाली। देख कर उठा तो काफी देर तक कुछ सोच नहीं पाया। शायद उस मूवी का हेंग ओवर उतरा नहीं था। फ़िर सोचता हूँ कि अभी तो काफी तय करना है। बड़ा कोई यूँ ही नही बन जाता। मैं तो फ़िर भी बहुत खुश हूँ। मुझे टुकडों में दुःख मिले हैं उस इंसान को एक साथ सब झेलना पड़ा। लेकिन रिस्कतो लेना ही पड़ेगा। शायद तभी मेरी किताब को टर्निंग पॉइंट मिले। फ़िर अभीतक जितना समेट है उसमे सिर्फ़ और सिर्फआंसुओं का रस ही तो है। इंतज़ार और सही लेकिन वादा रहा हम भी कुछ करेंगे..मेरी आत्मकथा क्जरुर पढिएगा। तब तक के लिए काफी कुछ लिखना है, काफी कुछ पढ़ना है। रोना है, हसना है और एहसासों को जिन्दा रखना है...
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