Monday, May 25, 2009

अपनी इज्जत अपने हाथ

एक जानने वाले हैं मेरे। काफी गरम मिजाज। कुछ दिन पहले कुछ बात चली। मजाक मजाक में उनकी आवाज़ थोडी व्यंगात्मक और तल्ख़ हो गई. लगा जैसे उनके दिल की बात बहार गई। उसमें काफी तड़प थी, लगा जैसे वो नहीं उनकी कसमसाहट बोली। कहा 'कल फ़िर झूट से सुबह की शुरुआत होगी, वोही तेल लगना होगा, चार पुलिस वालों को गरियाकर खुश हो जायेंगे। सोचेंगे बड़े पत्रकार हैं।' क्या यही स्तर रह गया है पत्रकारिता का? क्या हर पत्रकार कमोबेश ऐसा ही सोचता है?
यह सोचना जरुरी है...कहीं हम अपने लिए ही तो गड्ढा नही खोद रहे हैं। हम सबको अपनी सीमा बनानी होगी....

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