Friday, September 25, 2009

द लास्ट लियर विद टियर

इंसान की भी न जाने कैसी कैसी desires होती हैं. यही रुलाती है और यही हमें हसने का मौका देती है, यही ऊँचे आसमान सा कद करने की ताकत देती है और यही सीख भी समेत लेती है, फ़िर भी हम कुछ सीख को आखिरी नहीं होने देते, वो जिंदगी की पहली सीख सरीखी होती हैं।
इसी ने मुझे आज द लास्ट लियर देखने के लिए मजबूर कर दिया। दरअसल काफी दिनों से रोजाना एक फ़िल्म देखता हूँ, वजह नहीं जनता और सच पूछिए तो जानना भी नहीं चाहता। हर फ़िल्म मेरे अन्दर के छिपे कलाकार को कोसती है। कई ख्याल पनपते हैं और पानी के बुलबुलों की तरह फूट जाते हैं। आज कुछ ऐसा ही हुआ। मकबूल, हैरी और सिद्धार्थ। हर किरदार की गहराई नापने में फ़िल्म कब रुला गई, पता ही नहीं चला। जगे तो पता चला आंखों के आंसूं पलकों से बातें कर रहे हैं, अजीब अहसास था। शायद काफी दिनों बाद आंसुओं की गर्मी महसूस की थी। उनकी जलन फ़िल्म के बीते कई सीन्स को पलट कर देखने पर मजबूर कर रही थी। और हर सीन मुझसे ख़ुद में झाँकने को कह रहा था, फ़िर सोचा कि आख़िर ये फ़िल्म परदे पर लोगों को पसंद क्यों नहीं आई होगी। जवाब भी ख़ुद ही मिल गया, मेरी तरह हर इंसान को आंसुओं से दिल्लगी तो नहीं ही होगी। कम ही लोग ऐसी फिल्मों को देखकर उनमें जी पाते हैं। फ़िर शायद ये भी एक वजह हो सकती है। अमिताभ जैसे अभिनेता वाकई दुनिया में कम ही हैं। उन्हीं ने मुझे इस फ़िल्म को देखने के लिए खींचा है। desire से ही इंसान बनता है। चलना सीखता है और चलाना भी....हर किसी के लिए इसमें कुछ सीखने को है, पर हाँ जरूरी नहीं की ये आपकी आखिरी सीख हो।

(और हाँ, ये मेरी प्रतिक्रिया है, मैंने फ़िल्म की समीक्षा लिखने की कोशिश नहीं की है। कुछ अहसासों को यहाँ उडेलने की कोशिश की थी पर इस दौरान शायद वो एहसास फ़ोन की वजह से फीका पड़ गया। पर वो भी तो मेरी desire का ही हिस्सा है)

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