Sunday, November 14, 2010

प्यार, अधूरा मैं और समाज



समाज शब्द से नफरत सी होने लगी है। इसने मेरे सारे सपनों को बिखेर दिया है। इसे ऐसा करने से रोकने की कोशिश बहुत की लेकिन सारी कोशिशें नाकाम जाती रहीं। इसीलिए आज बहुत से सवाल हैं। जवाब नहीं मिल रहा और न ही कोई रास्ता नजर आ रहा है जो मेरी दुविधा के हल से मुझे मिलाये।

ये कैसा समाज है? ये किसका समाज है? और इस समाज का क्या काम है? ये समाज किसे क्या देता है? इस समाज से किसका कितना जीवन संवरता है? प्रेम का ठेकेदार क्यूँ है ये समाज? समाज के सामने प्रेम क्यूँ हारने लगता है? हम समाज के निरर्थक और दकियानूसी तानों से बचने के लिए क्यूँ अपने बच्चों की खुशियों का गला ख़ुशी ख़ुशी घोंट देते हैं? और ऐसे मां बाप को क्या संज्ञा दी जानी चाहिए जो प्रेम विवाह रोकने के लिए अपने बच्चों को जान से मार देने पर उतारू हो जाते हैं ?

उस लड़की का क्या कसूर है जो अपने मां बाप की ख़ुशी के लिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर रही है? उस लड़के का क्या कसूर जिसने अपनी प्रेमिका को ही धड़कन समझ लिया? उस लड़के का क्या कसूर प्रेम को प्रथाओं से ऊपर समझा? दोनों का क्या कसूर जो उन्होंने समझ लिया कि वक़्त के साथ लोगों की सोच भी बदल जाती है? और दोनों के जुदा हो जाने से समाज को क्या मिलेगा? क्या समाज वाह वाही करेगा उस मां बाप की? सम्मानित करेगा उस परिवार को जिसने एक अंधे और बहरे समाज के लिए दो जिंदगियों का गला घोंट दिया?

किसे दोष दूँ, ये भी मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. दिमाग सवालों का घर बन गया है। प्रेम के सुनहरे ख्वाबगाह को तहस नहस होते देखना कितना दुखदाई है इसे बयां करना भी बेहद मुश्किल है। भावनाओं के सामने शब्द इतने अदने लग रहे हैं कि उन्हें लिखने का भी मन नहीं। लेकिन क्या करूँ, इस समाज को ऐसे ही प्यार का क़त्ल करते और नहीं देख सकता। आज मैं समझ सकता हूँ विरह क्या है। आज मैं महसूस कर रहा हूँ कि वियोग क्या है। और कतई नहीं चाहता कि प्रेम यूँ ही घुट घुट कर मरता रहे। वो भी एक ऐसी सोच के सामने जिससे किसी का भला नहीं। जो सिर्फ और सिर्फ नफरत और दर्द को जन्म दे वो सही कैसे हो सकता है? कब तक हम समाज की व्यर्थ रुढियों के सामने घुटने टेकते रहेंगे। आखिर कब तक...

सुना था प्रेम बहुत शक्तिशाली होता है। पर क्या यह इतना कमजोर होता है जितना की आज मुझे प्रतीत हो रहा है...
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