Monday, November 7, 2011

सीधे दिल से...


मुकम्मल रौनक की चाह में रौशनी भी जाती रही
इक ख्वाब के खातिर हमने अंधेरों से दोस्ती कर ली...

यादों के आशियाने में  वो आ आ के जाती रही
मायूसी के वायस हमने ज़िन्दगी अपनी कर दी...


Monday, October 31, 2011

सीधे दिल से...

बोल दो कि तुमने छिटके हैं रंग 
इस सूखी, फीकी सी शाम में 

बोल दो कि तुमसे ही रफू हैं 
रेडियम से कपड़े इस चाँद के 

बस इक बार, बोल दो
कि तुमने ही रोपे हैं
तुमने ही रोपे हैं
सुरों के पौधे 
बेसुध फिजाओं में...


Friday, October 21, 2011

सीधे दिल से...



कहो तो पलकें झपकाऊं
मुकम्मल ख्वाब बन जाऊं

मोहब्बत के आसमां से
सितारे अश्क के लाऊं

सुनो तो दर्द कह जाऊं
या उधारी खुशियाँ ले आऊं

कहो तो पलकें झपकाऊं
मुकम्मल ख्वाब बन जाऊं

हजारों किस्से हैं कहने
कहाँ से लफ्ज़ मैं लाऊं

कहो तो नज़्म बन जाऊं
या बिखरे शब्द रह जाऊं

कहो तो खुदा से तेरे
वक़्त मांग मैं लाऊं

कहो तो पलकें झपकाऊं
मुकम्मल ख्वाब बन जाऊं

Tuesday, August 30, 2011

मंजिल करीब, छोटा सा सफर...मुश्किल डगर





फोटो- गूगल से साभार

बात ख़ुशी की है. ऐसा आन्दोलन, इतनी जल्दी सकारत्मक परिणाम! गज़ब का जन समर्थन! २७ अगस्त ऐतिहासिक है! संसद सदस्यों ने अभूतपूर्व काम किया! राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर बेहतर कल के लिए सहमति बनाई, लेकिन क्या लगता है कि ये लोग संत हो गए? अचानक ये हृदय परिवर्तन मेरे तो गले नहीं उतर रहा. मेरी नज़र में ये सब राजनीति का हिस्सा है. आखिर क्यूँ ध्वनि मत नहीं हो पाया? सोचिये...जवाब न मिले तो इस पर बहस करिए या फिर अगले संसद सत्र का इंतज़ार कीजिए. जब तक बिल पास न हो जाये और जनता के सामने न आ जाये तब तक ये होली-दीवाली मानाने का मतलब नहीं. मेरी नज़र में ऐतिहासिक दिन वो होगा जिस दिन संसद से एक सशक्त लोकपाल बिल पास हो जायेगा.

हृदय परिवर्तन या डर?

आप सोच रहे होंगे कि ये निराशावादी और नकारात्मक सोच/नजरिया है. शौक से सोचिये. कुछ और अच्छे संबोधन दे सकते हैं मुझे. लेकिन मेरे एक सवाल का जवाब खोजिये...क्या स्टैंडिंग कमेटी ने इस सो कॉल्ड रेसोल्यूशन पर मुहर लगा दी है? ५ अप्रैल से शुरू हुआ अन्ना का पहला अनशन याद होगा आपको! तो ये भी याद होगा कि सरकार ने क्या वादा किया था! फिर क्या हुआ? कमेटी बनी, बैठकें हुईं...पवन बंसल, सुबोध कान्त सहाय और कपिल सिब्बल कि पूरी टीम लगती है...और परिणाम...१६ अगस्त से एक और अनशन. इस बार १२ दिन चलता है. पूरा देश समर्थन में कूद पड़ता है. फिर सरकार घुमावदार बयानबाज़ी करती है. अन्ना को पहले वही पार्टी सर से पांव तक भ्रष्टाचार से ग्रस्त बताती है, कुछ दिन बाद उसे महान नेता कहने लगती है. आखिर, इतनी जल्दी सोच कैसे और क्यूँ बदल जाती है. ये शब्द और आरोप अचानक आरती में क्यूँ तब्दील हो जाते हैं. जाहिर है डर! डर सरकार गिरने का! फिर ये सरकार सारे प्रयास करती है अन्ना और उनकी टीम को समझाने की. पहले विलासराव देशमुख आते हैं. उनसे बात नहीं बनती. फिर अवतरित होते हैं भय्यु जी महाराज. किस काम के लिए...अन्ना से मांडवाली करने के लिए. खुद को महाराज यानि संत बताते हैं... कुछ लोगों से उनके बारे में पाता किया गया तो पाता चलता है कि जनाब इंदौर से हैं! पहले मॉडलिंग करना चाहते थे! फिर राजनीति और संत-सन्यासी के धंधे में कूदते हैं! इनके बारे में कहा जाता है कि राजनीति के गलियारे में इनकी अच्छी पैठ है या इसे गुंडई कहना सही रहेगा.

तार तार होती है संसदीय मर्यादा

फिर भी बात नहीं बनती तो संसद में प्रस्ताव लाने की बात होती है. प्रधानमंत्री वादा करते हैं वोटिंग करने का. २६ अगस्त, दिन शुक्रवार, संसद में पेंच फ़साये जाते हैं, और बहस शनिवार को शुरू होती है. सभी दल एक एक करके अपनी राय रखते हैं. शरद यादव और लालू यादव अपना चरित्र इस महत्वपूर्ण बहस में भी दिखाने से बाज नहीं आते. घटिया बातें और वैसी ही हरकतें करते हैं! यहाँ तक कह डालते हैं कि ये तो महज़ रिफ्रेशमेंट है. यही है संसदीय मर्यादा इन सांसदों की. डंके की चोट पर कहते हैं कि पढ़ना जरूरी नहीं, जो अनपढ़ है वो सबसे बड़ा इंसान है. लोकपाल का सांसदों पर कोई अधिकार नहीं होना चाहिए. पत्रकारिता पर सवाल उठाते हैं...कहते हैं अगर ये लोकपाल बन गया तो पत्रकार लिखना भूल जायेंगे. क्या वाकई ऐसा होगा? या फिर ये लोग कुछ ज्यादा ही डरे हुए हैं. शरद यादव कथित चुटीले व घटिया अंदाज़ में किरण बेदी को धमकाते हैं. संसद में खड़े होकर मर्दानगी और गुंडई का यही सबूत देते हैं.

तस्वीर अभी धुंधली है...

यहाँ ये दोहराना बहुत जरूरी है कि ये वही लोग हैं जिन्हें हमने ही संसद भेजा है...अब सवाल ये है कि क्या इसीलिए भेजा है? ताकि वो हमारे ही बल पर हमारे खिलाफ ही बयानबाजी करें. जवाब आपके पास है. लोकपाल बिल सरकारी ही होगा, अन्ना के तीन बिन्दुओं पर स्टैंडिंग कमेटी विचार करेगी. लेकिन ये तय नहीं है कि वो दोबारा धोखा नहीं करेगी. याद रखिये, इस सरकार ने सिर्फ इन तीन बिन्दुओं पर बात करने के लिए जनता को सड़क पर उतरने पर मजबूर कर दिया. लगभग हर सांसद किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार की मलाई काट रहा है. आप खुद सोचिये, आखिर वो क्यूँ चाहेंगे कि एक ऐसा लोकपाल बिल तैयार हो जाये और सबसे पहले उनकी ही गर्दन पर तलवार लटका दे. जो सांसद ध्वनि मत से सिर्फ इसलिए डर गए कि लोग जान जायेंगे कि कौन पक्ष में है और कौन विपक्ष में, वो कैसे अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे. स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन अभिषेक मनु सिंघवी ने साफ़ शब्दों में एक बार भी नहीं कहा है कि अन्ना के तीनों बिन्दुओं को वैसे का वैसे मान लिया जायेगा. अभी वो अरुणा रॉय और डॉक्टर जयप्रकाश नारायण के ड्राफ्ट पर भी चर्चा करेंगे. और तो और, इसकी कोई समय सीमा भी नहीं दी गई है.

मीडिया की एजेंडा सेटिंग थ्योरी

मीडिया ने एजेंडा सेटिंग थ्योरी पर अच्छे से अमल किया. बड़ी खबर थी, लेकिन इसे आन्दोलन, सत्याग्रह, अगस्त क्रांति और न जाने क्या क्या मीडिया ने बनाया. सैद्धांतिक रूप से देखा जाये तो गलत नहीं किया गया. जनता को जगाना जरूरी था और ये एकदम सही मौका था. करीब 10 दिन तक रामलीला मैदान में मीडिया का जमावड़ा रहा. मीडिया ने कुल मिलाकर सराहनीय काम किया. रिपोर्टर्स दिन रात जागते रहे...अन्ना अन्ना करते रहे. हालाँकि कुछ चैनलों ने निष्पक्ष सूत्रधार का काम किया तो कुछ ने खुद ही अन्ना की टोपी पहन ली. इसे सही ठहराना थोड़ा मुश्किल है. अनशन का १२वां दिन आता है. सरगर्मी तेज होती है. माहौल गरम होता है. संसद में ऐतिहासिक बहस होती है. चोर उचक्कों से लेकर ज्ञानी-विज्ञानी अपनी बात जैसे तैसे रखते हैं. लगभग सभी पक्ष में राय देते हैं. कुछ डर को छुपा नहीं पाते और बकबक कर देते हैं. वो ही लोग वोटिंग से डरते हैं. इस बीच टीम अन्ना पहुँचती है सलमान खुर्शीद से मिलने. मीटिंग जारी है लेकिन, उसी दौरान किरण बेदी मंच पर ही चीखना शुरू कर देती हैं कि अन्ना जीत गए...हम जीत गए...देश जीत गया. और मीडिया भी बिना इस खबर कि पुष्टि किये ब्रेकिंग न्यूज़ चला देता है. हर चैनल पर जश्न होने लगता है. तभी प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल मीटिंग से लौटते हैं. मीडिया उनपर लपकती हैं लेकिन ये क्या, ''फिर से धोखा हुआ''. प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल का बयान संसद में पल भर में पहुँच जाता है. उनके मुताबिक विपक्ष ने वोटिंग के लिए मना कर दिया है. मामला लटक जाता है. जल्दी से चैनलों से फ्लैश हटाया जाता है. संसद में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच सिलसिलेवार मीटिंग शुरू होती है. प्रणब मुखर्जी से मिल कर निकली सुष्मा स्वराज आरोप सिरे से ख़ारिज करती हैं और दावा करती हैं कि उनकी पार्टी वोटिंग के लिए तैयार है. प्रधानमंत्री की तरफ से तय होता है कि संसद में ध्वनि मत होगा. चैनल फिर काउंटडाउन शुरू करते हैं. कोई कहता है, १ घंटे में, कोई २ घंटे में और कोई हर दो मिनट पर कहता है कि बस दो मिनट और...

राहुल का भाषण और संसद पर सवाल

ये महज़ इत्तेफाक ही होगा कि लालू यादव अपने भाषण में वोटिंग का विरोध करते हैं और कुछ ही देर में लोकसभा ऐडजोर्न हो जाती है बिना ध्वनि मत के. एक दिन पहले उसी संसद में कॉंग्रेस के राजकुमार राहुल गाँधी शुन्य काल में नियम के विरुद्ध १५ मिनट तक देश के नाम भाषण देते हैं. लेकिन न मीडिया सरकार के पीछे पड़ता है न ही संसद इसका जवाब देती है. आश्चर्यजनक रूप से विपक्ष भी इस मुद्दे को उठाकर चुप हो जाता है. संसद में गुरुदास दासगुप्ता जब सुष्मा स्वराज के इस सवाल को दोहराते हैं तो सत्ता पक्ष से आवाज़ आती है...आपको क्या दिक्कत है. आख़िरकार प्रणब दा रेजोल्यूशन पास होने की आधिकारिक घोषणा करते हैं और विलासराव देशमुख उसकी प्रति लेकर पहुँचते हैं अन्ना के पास. अन्ना उठ खड़े होते हैं. रामलीला मैदान और देश में तमाम जगहों पर होली-दीवाली शुरू हो जाती है. मीडिया एक सुर में गाता है...अन्ना जीत गया. आला रे आला...अन्ना आला और जनता नाचती रहती है...रविवार दिन तक ये सुरूर बरक़रार रहता है...लोग भूल जाते हैं कि बिल अभी पास नहीं हुआ है. शायद ये सोचकर, कि अभी मौज कर लो, कल फिर से अनशन पर बैठ जायेंगे. और शायद इसी सोच के तहत अरविन्द केजरीवाल ने समर्थकों से आह्वाहन किया कि वो आगे भी कई ऐसे ही अनशनों के लिए तैयार रहें मानों उन्हें अनशन का दौर शुरू करना है.

चौथा मोर्चा...देश का भविष्य?

संदेह ख़त्म नहीं होते क्यूंकि सरकार और विपक्ष का चरित्र ही ऐसा रहा है. बीते कुछ वक़्त में सरकार और विपक्ष की कथनी और करनी में जमीन आसमान का फरक रहा है. मुझे उम्मीद है कि एक सशक्त कानून बन जाये! लेकिन इसके विपरीत हुआ तो...क्या फिर से ऐसा ही अनशन होगा...क्या फिर से एक बूढ़े आदमी को हम भूखा बैठाकर ब्लैकमेल ब्लैकमेल खेलेंगे. या फिर इस बार रणनीति कुछ और ही होगी. क्या इस सम्भावना को नाकारा जा सकता है कि देश को एक और मोर्चे की जरूरत है जो राष्ट्रीय हो. जो न दक्षिण का हो न उत्तर का, जो न सांप्रदायिक हो न ही भ्रष्ट, न जातिवादी हो न ही रूढ़िवादी. ऐसा एक ''चौथा मोर्चा''. सवाल ये उठता है कि कौन और कैसे बनाएगा ऐसा मोर्चा. वरिष्ठ पत्रकार भी इस सम्भावना को नहीं नकारते पर बीच बहस में अमृत सी एक सलाह निकलकर आती है. क्यूँ न इस देश को गाँधी के सपनों के देश बनाया जाये. महात्मा का मानना था कि कॉंग्रेस को भी जनसेवक संघ के रूप में काम करना चाहिए. क्या ये चौथा मोर्चा इसी रूप में काम कर पायेगा? सिविल सोसाइटी के पास अथाह जन समर्थन है. घर घर में अन्ना की बयार है. तो क्यूँ बार बार आन्दोलन किया जाए? क्यूँ न संवैधानिक और लोकतान्त्रिक तरीके से ईमानदार और निष्पक्ष जनप्रतिनिधि बनाने का एक स्वर्णिम सिलसिला शुरू हो और संसद में देश का उज्जवल भविष्य बैठे. ये मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं...फिर, कभी न कभी तो ये होना है. आज नहीं तो कल...कल नहीं तो परसों...

Thursday, August 11, 2011

दिल जब शोर करता है...

दिल की खामोश गलियों में कोई आज भी
एक आहट की आस लगाये बैठा है
कह दो उन मतवालों से कोई आज भी
नफरत की बस्ती में प्यार का बाज़ार लगाये बैठा है
लफ्ज़ कम हैं, और कहानियां ज्यादा
एक वादा इस ज़ुबां पर ताला लगाये बैठा है

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हर बात बताते रहे वो हमसे रात दिन
और एक दिन वो भी आया...
दामन छुड़ा के चल दिया हमको बताये बिन

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मुद्दतों पहले मुस्कुराये थे हम किसी के साथ
आज...कहीं किसी शहर में...
जनाज़े से मेरे बेखबर हैं, हीना से सजे हाथ

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उम्मीद करता हूँ, उन्हें हर नाम
हर इलज़ाम याद होंगे
इश्क की स्याही में डूबे वो ख़त
वो पैगाम याद होंगे
मुझसे जोड़े थे कभी उसने मोहब्बत से
मेरी डगमगाती कश्ती के
वो अरमान याद होंगे...

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उन लम्हों को महज़ लम्हे न समझना
उनमें एक ख़ूबसूरत कल सांस लेता होगा
इन बातों को महज़ बातें न समझना
इनमें कोई तो एहसास सांस लेता होगा...

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दिल के हालत कैसे हैं,
तुम्हे समझा नहीं सकता
आंखें कहती हैं कि मैं बोलूं
जुबां भी जिद पे अड़ती है
आँखें आसूं बहाती हैं
ज़ुबां खामोश रहती है
उम्मीद हैं, तड़पती हैं,
सीने में कैद कर नहीं सकता...

Friday, July 22, 2011

तमन्ना...


ऐ मुसाफिर...
क्यूँ जारी है ख़ुशी की तलाश
कितनी मायूस है तेरे सपनों की रात

ऐ मुसाफिर, पन्ने तो पलट
देख वो स्याही भी सूख गई
ढलती रही जिसमें ज़िन्दगी तेरी

तेरी इक कोशिश से बन जायेंगे
खुदबखुद असबाग
तो क्यूँ न तू नयी कहानी लिख

मैं मजबूर हूँ...मौसम की तरह
मुझपर मेरा ही बस नहीं
तेरे अरमानों ने ही ज़िंदा रखा है मुझे

मत खोज...
उसका कोई अक्स औ लिबास नहीं
उसे खोजने में तू हर ख़ुशी खो देगा,

मैं एक रोज़, तुमसे मिलने आऊँगी
मुसाफिर लेकिन इंतजार न कर
वादा रहा, तेरे हर गम का हिसाब कर जाऊँगी

मत सोच कि मैं तेरे आंसू नहीं गिनती
मैं तेरी तमन्ना हूँ, यकीं तो कर
तुझे रुलाकर मैं कैसे जी पाऊँगी...

Wednesday, July 13, 2011

ऐ हवा...(2)


आवारा कहूँ या बेकरार तुझको
किसकी तलाश है जो दर दर भटकती है

ठहरती है कहीं न सांस लेती है
बांटती है जिंदगी, खुद खामोश रहती है

किसी के पहलू, किसी के दामन में
जाने तू कैसे रंगों-सांचों में ढलती है

आशियाना, ठिकाना, तेरा घर कहाँ है
पेड़ों, मुंडेरों पर तो बस तू ठहरती है

ग़मों की तेरी लम्बी कहानी है
बरफ के पहलू में तू भी आंसू बहाती है

लेकिन, फितरत तेरी तो मुझ सी ही है
गुस्से में तू भी श्रृष्टि से लड़ती है

ऐ हवा, ठीक मेरे दिल की तरह
तू भी बेताब, हैरान सी फिरती है

ऐ हवा...तू मुझमें मैं तुझमें हूँ
मेरे अरमानों की तरह तू भी दिखती नहीं

ऐ हवा, कुछ तो है हमारे दरमयां
यूँ ही नहीं दिन रात मेरे संग तू चलती है....

ऐ हवा...(1)


काश...
मैं भी होता तुझ सा
आवारा, ऐ हवा...

फिरता कहीं भी
मनमाना ऐ हवा

बेसुध, बेपरवाह
अल्हड़, दीवाना ऐ हवा

ठहरकर, आंसुओं को
न गिनता ऐ हवा

बांटकर सुकूं
इठलाता ऐ हवा

पंछियों से आगे
बढ़ता रहता ऐ हवा

काश, मैं तुझ सा
होता ऐ हवा

रवायतों के पन्नों को ले
उड़ जाता ऐ हवा

आंसुओं को पल में
सुखा पाता ऐ हवा

दीवाना होता, मैं भी
सरगोशियाँ करता ऐ हवा

बहारों को फूलों से
सजाता ऐ हवा

मोहब्बत के दामन को
उड़ाता रहता ऐ हवा

बच्चों के अरमानों सा
उड़ता ऐ हवा
काश...काश....काश
मैं तुझ सा होता ऐ हवा...

Friday, April 15, 2011

अ लोन ट्रैवलर

(फोटो गूगल से साभार)

मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल
लोग न मिले, काफिला न बना
एक मोड़ पर लेकिन
वो मिल गए
मैं उनके संग और
वो मेरे संग हो लिए
और हम चल दिए
जानिबे मंजिल
राह में एक दोराहा आया
वो घर को चल दिए
मैं फिर अकेला चला
जानिबे मंजिल
राह में एक शहर आया
अन्ना संग हजारों मिल गए
मैं उनके संग हो लिया
और उनकी मंजिल
तक पहुंचकर फिर
मैं अकेला चला जानिबे मंजिल
कई शहरों, कई कस्बों से गुज़रा
कई हुस्नों, कई जिंदगियों से गुज़रा
विदर्भ की भूख,
किसानों की बेबसी देखी
फटी साड़ियाँ, उधड़े बदन देखे
फरेब की रौशनी
जगमगाते शहर देखे
उजड़ते गाँव,
घिसटते पांव देखे
जात, पात और धर्म
पर खेले जा रहे
बेतहाशा दांव देखे...
और एक दिन
नज़र के सामने मंजिल और
नज़र में था वो मंज़र
जो सफ़र ने मुझे
तोहफे में दिया था
शायद मंजिल तक
पहुँच कर लौट आने को
पर मैं बढ़ा मंजिल को
बगल की एक संकरी गली से
खुद एक मंजिल बनाने को...

मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल
मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल...

Friday, April 8, 2011

लोकतंत्र में ईमानदारी का मानक क्या है? (सवालों का ढेर)

फोटो: गूगल से साभार.



सोशल नेटवर्किंग पर अन्ना हजारे के अभियान को हजारों लोग अंधाधुंध समर्थन दे रहे हैं तो कई लोग अरविन्द केजरीवाल द्वारा ड्राफ्ट किये गए बिल को ध्यान से पढ़ रहे हैं और उसपर अपना विचार दे रहे हैं जो फिलहाल उनका संशय है. इस बिल के एक बिंदु ( मैग्सेसे पुरस्कार विजेताओं को लोकपाल की चयन समिति में रखा जाये) से उनकी सहमति नहीं है. इसके अलावा अन्ना लगातार सोशल सोसाइटी के लोगों को अहम भूमिका में रखे जाने पर बल दे रहे हैं. इस पर भी असहमति है. चलिए मान लिया कि बिंदु असहमति के योग्य हैं भी, लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है इसमें ये भी प्रावधान है कि अगर किसी को लगता है कि समिति का कोई भी सदस्य भ्रष्ट है तो जांच के बाद हटा दिया जायेगा. फिर भी, आपके पास इसका कोई तो विकल्प होगा. इस एक सम्भावना के इर्द गिर्द कई सवाल हैं. जितना सोचिये, उतना ही उलझते चले जाते हैं. खैर, फौरी सवाल तो ये हैं कि क्या बाबा हजारे ने किसी व्यक्तिगत फायदे के लिए उस बिंदु को जोड़ा और उसपर बल दिया और लगातार दे रहे हैं? या उन्हें उसके अलावा कोई और विकल्प विश्वसनीय लगा ही नहीं? क्या मैग्सेसे पुरस्कार विजेता होना ये सर्टिफिकेट है कि वो बहुत ईमानदार हैं?



सिविल सोसाइटी को कई परिभाषाएं दी जा रही हैं, विकिपीडिया से लेकर लाइब्रेरी की धूल जमी शेल्फ साफ़ करके इसके तमाम अर्थ, पर्यायवाची, इसका इतिहास और निहितार्थ खोजे जा रहे हैं, और लोग अन्ना हजारे की मुहिम के सिविल सोसाइटी वाले हिस्से पर सवाल पर सवाल दागे जा रहे हैं. उनके सवाल वाजिब हैं. कोई लोकतंत्र से ऊपर नहीं है और न किसी को ऊपर होने का अधिकार है लेकिन कोई ये भी बताये कि इसका विकल्प क्या है? क्या गारंटी है कि संवैधानिक व्यवस्था जिन लोगों के हाथ में तमाम अधिकार सौंपती आई है, वो दूध के धुले होंगे. नौकरशाह या नेता (जिनका चुनाव एक व्यवस्था के तहत होता है), कौन आपकी कसौटी पर खरा है? कौन है जिसकी एक विचारधारा नहीं है, राईट, लेफ्ट या सेंटर कोई भी? कौन धार्मिक नहीं है? कौन अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द नहीं लगाता है? और जो ऐसे हैं क्या वो सभी नौकरशाही में या नेतागिरी में हैं? हैं भी तो कितने हैं? और आपके मुताबिक किसी का गैर जातीय, गैर धार्मिक होने का प्रमाण क्या है? और कौन देता है किसी को ऐसा प्रमाण? लोकतंत्र में सब अपनी ढपली अपना राग अलापने का आनंद उठाते हैं. हम सब भी उठा रहे हैं, लेकिन परिणाम क्या होगा? हम कैसा बदलाव देखेंगे?



ये वही अन्ना हैं जिन्होंने, उमा भारती को भगाया, चौटाला को भगाया, पवार को गरियाया. संघियों को भगाया लेकिन जो लोग उनके अभियान का हिस्सा बन रहे हैं क्या वो सबको व्यक्तिगत रूप से जानते हैं? ह्वाईट कॉलर, ब्लैक कोट, नाईट पार्टीज़ में पीकर धुत होने वाले लोग अन्ना के नाम की टोपी पहनकर अपने अपने शहर के जंतर मंतर पहुँच रहे हैं. उन्हें फिक्र है कि धुप उनकी आँख पर असर ना डाल दे, इसलिए गुची और अरमानी का चश्मा पहनना नहीं भूलते. क्या ये सभी ईमानदारी के पुतले हैं? और मेरी तरह जो लोग लगातार इस अभियान पर कमेंट्री कर रहे हैं, वो? मीडिया वाले? एनजीओ वाले? सब चौबीस कैरेट ईमानदार हैं? तो भरोसा किस पर करेंगे आप? पिछले दिनों अविनाश दास जी मुझसे बोले, अगर इतना संशय किया जाता तो देश आजाद ही नहीं हो पाता और आज सुबह उन्ही के मोहल्ला लाइव पर दिलीप मंडल जी का लेख पढ़ा. वो भी संशय ही कर रहे हैं. मैं उनकी बात नहीं दोहराऊंगा लेकिन ये जरूर कहूँगा कि इन सब सवालों के बारे में भी सोचिये. अगर जवाब मिल जाये तो चंद सवालों के जवाब और दीजिये...जिस लोकतंत्र की हम सब ढपली बजा रहे हैं उसमें ईमानदारी का मानक क्या है? किसे मिलता है उसका सर्टिफिकेट? नौकरशाह माने ईमानदार या नेता माने ईमानदार सिर्फ इसीलिए क्यूंकि उसे एक व्यवस्था ने चुना है? इस देश में जेएम लिंगदोह, अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण, बाबा अन्ना और जस्टिस जेएस वर्मा ईमानदार नहीं हैं तो कौन है? जस्टिस संतोष हेगड़े पर तो कई सवाल पहले ही लग चुके हैं. ईमानदार आप हैं, मैं भी हूँ पर हमारा क्या लोकतान्त्रिक आधार है, हमारे पास कौन सा सर्टिफिकेट है जो हम बन जायें समिति का हिस्सा या फॉर दैट मैटर भ्रष्टाचार के खिलाफ चिल्लाने और कमेंट्री करने के लिए? सोचिये. मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया है आपने.



इन सवालों से इतर सिर्फ इतनी सी बात कहने की गुस्ताखी करना चाहता हूँ कि हमारे वाजिब सवाल, सही सोच, सटीक सच कई बार दुष्परिणाम के रूप में भी सामने आते हैं. मेरा मानना है कि ये मुहीम एक बड़े राजनीतिक और काफी हद तक सामाजिक बदलाव की और बढ़ रही है. जरुरत है कुछ दिनों तक पॉजिटिव पोल पर बने रहने की.


(जिस बात की दुहाई लोग दे रहे हैं कि जनता ने जिन्हें चुना है उन्हें ही अधिकार होने चाहिए, सिविल सोसाइटी का कोई लोकतान्त्रिक आधार नहीं, इस पर आम आदमी तो यही सोचेगा कि ये लोग वोट न डालो तो भी गरियाते हैं कि वोट नहीं डालते और डालो तो कह देते हैं कि आपने ही वोट दिया था. अब तो सारे गलत सही काम वो करेगा और डंके की चोट पर करेगा. तुम कुछ नहीं कर सकते. अब पांच साल इंतज़ार करो. किस्मत सही हुई तो ठीक नहीं तो झेलते रहो. फिर वो भी यही सोचेगा कि हम कहें परेशान हों यार, बाबा लड़ें अकेले, कुछ नहीं होना. हम भी पानी के साथ बहें तो बेहतर. ::::::कमेंट्री से अलग एक आम फेसबुकिये और ब्लॉगर

की नज़र से ::::::)

Tuesday, April 5, 2011

क्या ये फिल्में हमें आइना दिखा रही हैं ?


आजकल फिल्मों को लेकर खासे प्रयोग शुरू हो चुके हैं हालाँकि ऐसे प्रयोग करने वाले प्रयोगधर्मी निर्देशकों को पारंपरिक फ़िल्मी दुनिया में सम्मान नहीं दिया जा रहा है. इसके पीछे उनका डर भी हो सकता है और जलन भी.

विडंबना ये है कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका भी इनको गले नहीं लगा रहा है. बात हो रही है अनुराग कश्यप, दिबाकर और कौशिक मुखर्जी जैसे फिल्म निर्माताओं की. इनकी बदौलत फिल्मों का स्वरुप अचानक कुछ अलग सा दिखने लगा है. करन जौहर और चोपड़ा घराने की प्रेम कहानियों और सूरज बरजात्या टाइप घरेलू कहानियों के बीच से एक किरण निकलने की कोशिश करते दिख रही है. तमाम फिल्मों की तरह ये सतरंगी नहीं है, बल्कि इसका रंग खालिस ब्लैक एंड ह्वाईट है. इसकी कोशिश है, पूरी तरह एक प्रकाश पुंज के रूप में उभर कर सामने आने की, लेकिन आड़े आ रहा है हमारा समाज, हमारा सिस्टम और हमारी सोच. सेंसर बोर्ड की कैंची ऐसी किरणों के पंख हमेशा से कतरती रही है और आज भी ये इनके ख्वाबों के पंख क़तर रही है. सवाल जो बार बार कौंध रहा है वो ये कि आखिर आगे हम कैसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं. चंद टुटपुन्जिये संगठनों की और हमें क्यूँ देखना पड़ता है समाज की सच्चाई दिखाने से पहले ? क्यूँ हमें राजनीति के भदेस चेहरों से स्वीकृति मांगनी पड़ती है जबकि खुद उनका इतिहास कालिख से पुता हुआ है ? आखिर क्यूँ हैं हम इतने हिप्पोक्रेट ? क्या इंसान के तौर पर इतने कमजोर और खोखले हो चुके हैं कि अपने समाज की सच्चाई देखने से कतराते हैं ? हम घर की चहारदीवारी के भीतर कुछ हैं और बाहर कुछ और बनने और दिखने की कोशिश करते हैं और उसे कोई चलचित्र में ढाल दे,तो चीख पुकार क्यूँ होती है? डरते हैं हम अपने ही चेहरों से ?

ये सब सवाल उठते हैं जब फायर, वाटर, लव सेक्स और धोखा, नाइन हावर्स टू रामा, सिक्किम, किस्सा कुर्सी का, काम सूत्र और गांडू द लूज़र जैसी फिल्में सिनेमा हाल की स्क्रीन पर आने के लिए तरस जाती हैं, कुछ को सेंसर बोर्ड रोक देता है तो कुछ को इस देश के राजनितिक संगठन. खासी लड़ाई लड़नी पड़ती हैं इन्हें अपने ही वजूद को साबित करने के लिए. मुझे डर है कि अनुराग की अगली फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स को भी लोग अपना पाएँगे या नहीं. वेनिस फिल्म फेस्टिवल और टोरंटो इंटरनेश्नल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म को काफी सराहा गया है लेकिन फिल्म की विषयवस्तु और दृश्यांकन भारतीय समझ और इसकी कुंठित सोच को बार बार चुनौती देगा, इसमें भी दो राय नहीं. फिल्म में ''आ मुझे चोद'' जैसे शब्दों और कुछ ऐसे दृश्यों का इस्तेमाल हुआ है जिसपर कई संगठनों को झंडा और त्रिशूल लेकर चिल्ल पों करने का मौका मिलेगा.

कौशिक की फिल्म ''गांडू द लूज़र'', क्या है ? इसकी विषयवस्तु क्या है और इसका हमारी ज़िन्दगी में कितना महत्व है, ये शायद ही लोग जानने में रूचि लेंगे. उन्हें रूचि है तो गांडू नाम को सुनकर जोर से ''हौ'' बोलकर खिलखिलाने में. किसी को मतलब नहीं कि आखिर कोई तो वजह रही होगी जो इसका नाम यही रखा गया. ये कोई नहीं जानना चाहता कि हमारे इस विचित्र समाज में ऐसे ना जाने कितने गांडू घुट घुट कर बस जिए जा रहे हैं. हर तीसरे घर में एक गांडू है, लेकिन वो सबके सामने कैसे आ सकता है, उसके दिल की बात हम कैसे सुन सकते हैं, कैसे उसे समझ सकते हैं हम ?

समस्या यही है, हम एक अरब से भी ज्यादा जनसँख्या वाले देश हैं ना, यहाँ हम कुछ लोगों को अधिकार दे चुके हैं कि अब वो ही हमारी तरफ से सही गलत का फैसला लेंगे. पांच साल में एक बार वोट डालकर हम एक प्रतिनिधि बनाते हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेते हैं. वो सही कर रहा है तो वाह वाह कर देते हैं और वो गलत कर रहा है तो इधर उधर बुदबुदा कर आगे बढ़ जाते हैं. स्लमडॉग मिलिनेयर झुग्गियों में बसर कर रहे लोगों की कहानी विदेशी चश्मे से दिखाती है तो हम बिना आव ताव देखे तारीफों के पुल बाँधने लगते हैं लेकिन गांडू की ब्लैक एंड ह्वाईट ज़िन्दगी में रंग भरने की कोशिश नहीं करते. जबकि गांडू की ख़ामोशी चीख चीख कर हमारे समाज को आइना देखने को कहती रहती है. भारत के किसी गझिन मोहल्ले की मोड़ पर एक छोटे से घर से निकली ''गांडू द लूज़र'' न्यूयॉर्क इंटरनेश्नल साउथ एशियन फिल्म फेस्टिवल में क्या कर पाई होगी, समझ नहीं आता, जब

अपने घर में ही इसका कोई मोल नहीं है. चार इंटरनेश्नल अवार्ड जीतकर क्या मिलेगा ''क्यू'' को? ये फिल्म हमें भीतर झाँकने को कहती है और हर मोड़ पर ये बताती है कि हमारे समाज की संरचना और इसकी घटिया सोच के क्या परिणाम हैं.

हमेशा की तरह लीक से हटकर चलते हुए अनुराग ने फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स फिल्म में भी एक सच परोसा है, ज़िन्दगी का सच. पुरुष प्रधान समाज में एक मजबूर लड़की होने का सच. कल्कि कोच्लिन के रूप में एक विदेशी लड़की की कहानी को हमारे समाज के नंगे सच से जोड़कर जिस तरह अनुराग ने परोसने की कोशिश की है, वो काबिलेतारीफ है लेकिन कितनो को ये नागवार गुजरेगी, इसका अंदाज़ा फिल्म के ट्रेलर्स देखकर ही लगाया जा सकता है. फिल्म के कुछ दृश्य और संवाद कचोटते हैं लेकिन जिस खूबसूरती से अनुराग ने इसे कलात्मक बनाया है, वो गज़ब है. इन फिल्मों को देखकर लग रहा है कि एक बार फिर हम सामानांतर फिल्मों के दौर को देखेंगे, कुछ अलग अंदाज़ में.

मुझे युवा के तौर पर, पत्रकार के तौर पर और देश के पढ़े लिखे नागरिक के तौर पर हमेशा ये लगता है कि हम ''गांडू'', ''गांड'', ''सेक्स'' और ''चोद'' जैसे शब्दों को जब तक टैबू समझेंगे, तब तक अज्ञानता के अँधेरे से बाहर नहीं निकाल पाएंगे. ये फिल्में जिन दर्शकों के लिए बनायीं जा रही हैं वो बच्चे नहीं है, वो ग्रोन अप्स हैं.

अंग्रेजी कपडे पहनने और अंग्रेजी शराब पीने से ही हमारी सोच वेस्टर्न नहीं होगी, ये बात हम जितनी जल्दी मान लें अच्छा होगा. चाहरदीवारी के भीतर अकेले पोर्न फिल्म देखकर अपना हाथ जगन्नाथ करने वाले और बात बात पर मां-बहन को सेक्स सिम्बल बनाने वाले इस समाज के करोड़ों लोग किसी फिल्म में ऐसे किसी सीन को देखकर मुहं पर हाथ रख लेते हैं, और आलोचना करने में कोई कसार नहीं छोड़ते. आखिर क्यूँ ?

इन शब्दों को गाली के समतुल्य बनाने वाले हम जब हम ही हैं, यही समाज ही है तो इन शब्दों को हम सामान्य रूप से क्यूँ नहीं ले सकते ? क्यूँ नहीं इसे समाज का एक अंग मान लेते ? ये फिल्में हमें आइना दिखा रही हैं...इन्हें परदे पर आने देने में समझदारी होगी...और ये तभी संभव है जब हम अपनी ताकत जानें और उसका सही इस्तेमाल करें. क्यूंकि पब्लिक सब जानती है और ये कुछ भी कर-करवा सकती है...

हाल ही में, एक खबर में पढ़ा कि इंटरनेट की चर्चित भारतीय सेक्स सिम्बल सविता भाभी कॉमिक कार्टून सिरीज़ पर भी एक रेगुलर रीडर सी एम जैन साहब शीतलभाभी डोट कॉम नाम से फिल्म बना रहे हैं. समझ नहीं आ रहा है कि ये क्रिएटिव कही जाएगी या भदेस ? ये सवाल दर्शकों पर छोड़ रहा हूँ लेकिन मुझे ये अंदाज़ा जरुर है की फिल्म क्या गुल खिलाएगी. ये भी लग रहा है कि इसके बोल्ड सीन्स और विषयवस्तु सेंसर बोर्ड शायद ही पचा पाएगा. कुछ भी हो, ये भी आइना हमारे समाज का ही है.

Wednesday, March 30, 2011

आपकी नैतिक जिम्मेदारी क्या है पत्रकार महानुभावों?


बीते दिनों कथादेश के मीडिया वार्षिकी अंक के लिए ये लेख लिखा था. आज सुबह दिलीप मंडल जी का मेल आया कि वो इसे इस्तेमाल नहीं कर पाए हैं. अब ब्लॉग पर ही डाल रहा हूँ.

मन करता है, पूछूं उनसे

सच क्या है, जानते हो

नैतिकता बला क्या है

क्या इसे पहचानते हो

पर्दे पर तो खूब चहकते

क्या मीडिया धर्म जानते हो...

ओपेन और आउटलुक मैग्जीन में प्रकाशित राडिया टेप्स के सनसनीखेज खुलासे के बाद मीडिया पर कई सवालिया निशासन खड़े हो गए हैं। मीडिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर भी कलंक लगा है। सबसे शर्मनाक बात यह सामने आई है कि जिन दिग्गज पत्रकारों को युवा अपना आदर्श मानते रहे हैं, आम आदमी उनकी बात को सुनकर अपना ओपिनियन बनाता रहा है, उनमें से ही कई बेनकाब हो गए हैं। अब उनके एकदम अलग ही चेहरे नजर आ रहे हैं। ओपिनियन लीडर्स माने जाने वाले इन सो कॉल्ड सच्चे पत्रकारों के इस चेहरे ने हम सबको सोचने पर मजबूर कर दिया है। मेरे मन में भी कई सवाल हैं जिनका जवाब मैं इन पत्रकारों से ही जानना चाहता हूं। हालांकि ये भी जानता हूं कि इनका जवाब किसी भी हालत में मुझे संतुष्ट नहीं कर पाएगा। न ही संतुष्ट कर पाएगा उन हजारों-लाखों लोगों को जिन्होंने इन पत्रकारों से कुछ उम्मीद संजोयी थीं।

मैंने हमेशा बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला को निष्पक्ष पत्रकारों की श्रेणी में रखा, इनके लेखों में देशहित की भावना को महसूस किया और टीवी स्क्रीन पर इनके तेजतर्रार और बेबाक सवालों को सलाम किया। हमेशा इनके ही मंुह से नैतिक जिम्मेदारी की बड़ी बड़ी बातें सुनीं। अक्सर किसी विवाद में फंसे पब्लिक फिगर के लिए। मुझे आज भी ध्यान है जब अमिताभ बच्चन ने गुजरात का ब्रांड अम्बेस्डर बनने का ऑफर स्वीकार किया था, मीडिया एक स्वर में उनकी आलोचना कर रही थीं। क्या अखबार और क्या टीवी चैनल्स। खास बात ये थी कि इन पत्रकारों ने भी किसी न किसी फोरम पर अमिताभ की आलोचना की थी। सब खुद को राष्ट्रवादी बताते हुए अमिताभ को यह याद दिला रहे थे कि उनकी भी पब्लिक फिगर होने के नाते एक नैतिक जिम्मेदारी है। नैतिक जिम्मेदारी याद दिलाने का यह सिलसिला बहुत पुराना है और ये पत्ता मीडिया के ये दिग्गज पत्रकार प्रधानमंत्री के साथ खेलने में नहीं चूकते। हाल ही में टूजी और कॉमनवेल्थ घोटालों को लेकर भी मीडिया ने प्रधानमंत्री के सामने कई बार प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से नैतिक जिम्मेदारी लेने की बात कही। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन पत्रकारों की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है...इस खुलासे के बाद। अगर इनमें जरा भी सच्चाई है तो इन्हें अपने गौरवान्वित पदों से तुरंत ही इस्तीफा दे देना चाहिए और जांच पूरी होने का इंतजार करना चाहिए, लेकिन मेरी जानकारी के मुताबिक बरखा दत्त आज भी एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल की ग्रुप एडिटर पद पर काबिज हैं, वीर सांघवी भी हिंदुस्तान टाइम्स के एडिटोरियल डायरेक्टर के रूप में काम कर रहे हैं और प्रभु चावला इंडिया टुडे ग्रूप से जाने के बाद चेन्नई के दि न्यू इंडियन एक्सप्रेस अखबार के एडिटर इन चीफ हैं। क्या ये लोग कैमरे के सामने ही पत्रकारिता के मूल्यों की बात करते हैं? क्या कैमरे के पीछे इन पत्रकारों के पैर भी भ्रष्टाचार के दलदल में अंदर तक धंसे हुए हैं?

इसके अलावा एक और दिग्गज पत्रकार का नाम सामने आया है, एमके वेणू का। जब नीरा राडिया से उनकी बात हुई थी, उस समय वो इकोनॉमिक टाइम्स के संपादकों में से एक थे। आजकल ये महानुभाव फाइनेंशियल एक्सप्रेस के मैनेजिंग एडीटर हैं।

इतना ही नहीं, आउटलुक की वेबसाइट पर उपलब्ध राडिया के कॉल रिकार्ड्स पर नजर डालें तो बरखा दत्त और वेणू के अलावा कई और पत्रकारों का भी नाम बार बार सामने आता है। समझ नहीं आता कि एक पत्रकार को राडिया जैसी पीआर पर्सन से इतनी बात क्यों करनी पड़ी। इन नामों में इकोनॉमिक टाइम्स के जी गणपति सुब्रमण्यम का नाम बहुत बार आता है। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश यहां डाल रहा हूं ताकि पता चल सके कि एक पत्रकार कैसे अपने काम को करता है-

Ganapathy Subramanaim(Ganu) to Niira Radia— Did you see all the crazy things they were doing today. Ask the media they will tell you.They were passing on all the car numbers to everybody.

Radia to Ganu—- Yeah, yeah, we are not bothered.— You know Ganu, we have taken a decision, Mukesh(Ambani), was in town, he has told us, ignore ET(Economic Times, ET Now). If they behave like idiots, let them, just ignore them. Talk to only those who matter. Barring you(Ganu) and Venu and TK, we are not going to, Soma and they had come, they talked a load of nonsense with Manoj Modi, and, quite frankly if they want to behave like a tabloid, let them behave like that.

Ganu to Radia—an—d, an—d , aaah, somebody is passing on information everywhere, I don’t know how, what.

Radia to Ganu— like?

Ganu to Radia— Like who are all meeting Manoj( Warrier or Modi?), and like all those things you know.

Radia to Ganu— That AP CMs, letter I will give you, but not now.

Ganu to Radia— yeah, yeah, no problem, no hurry.

Radia to Ganu— I wont give if its not front page news. —– General you will ensure it na?

Ganu to Radia— yeah, yeah, yeah

इसके अलावा राडिया से सीएनएन आईबीएन के राजदीप सरदेसाई, पीटीआई के राकेश हरि पाठक, ईटी नाउ के ई श्रीधरन, इकोनॉमिक टाइम्स के राहुल जोशी व रश्मि और टाइम्स ऑफ इंडिया के जयदीप बोस की भी बात हुई थी, वजह जो भी रही हो लेकिन मेरी समझ से एक पीआर पर्सन इतना अहम नहीं हो सकता कि इतने पत्रकारों का उससे बात करना जरूरी हो जाए।

मैंने राडिया से बरखा, वीर, प्रभु और वेणू, सबकी बातचीत सुनी फिर एक एक कर सबके लेख फिर से खोजे जिसमें उन्होंने किसी न किसी रूप में आदर्शों और मूल्यों की बातें की हैं। बरखा जो टीवी पर नजर आती हैं, जो वो अपने ब्लॉग पर लिखती हैं और जो वो राडिया के साथ बातों में नजर आती हैं, यकीन नहीं होता कि एक वक्त ये महिला पत्रकार कभी मेरी आदर्श हुआ करती थी। वीर सांघवी हिंदुस्तान टाइम्स में म्यूजिक पर एक से एक लेख लिखते थे, एनडीटीवी पर अपने शो में व्यूअर्स को बांधे रखते थे और सरोकार से जुड़े मामलों पर बेबाक राय देते थे लेकिन फिर जब मैंने राडिया से उनको कहते सुना कि मैं तो पूरा शो ही स्क्रिप्टेड कर दूंगा, बाकायदा रिहर्सल करूंगा तो उनका दूसरा चेहरा भी बेनकाब होता रहा। प्रभु चावला के तो कहने ही क्या...पहले हिंदी न्यूज चैनल आज तक पर अपने इंटरव्यूज के बेहतरीन अंदाज से लोगों के सामने एक सच्ची छवि बना ली और आजकल ईटीवी पर एक शो कर रहे हैं। हर दूसरी पंक्ति में वो सच्चाई की बात करते हैं। कहते हैं कि बिना लाई डिटेक्टर के वो सच का पता लगा लेते हैं क्योंकि उन्होंने चालीस बरस सच के साथ बिताए हैं और मैं कहता हूं कि यही वजह है कि उनके लिए सच महज एक खेल बनकर रह गया है।

मुकेश अंबानी के लिए उन्हें राडिया से बात करनी पड़ी। उनसे कुछ ही सवाल हैं, अगर उनको इतने बरस का अनुभव है तो क्या वो नहीं जानते थे कि राडिया क्या है? क्या वो नहीं जानते थे कि वह किस तरह एक बिजनेस घराने के फायदे के लिए कॉरपरेट लॉबीइंग कर रही है? क्या उन्हें अंदाजा नहीं था कि राडिया मीडिया को कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर रही है? फिर आखिर राडिया क्यों? आखिर मुकेश अंबानी की इतनी फिक्र क्यों सता रही थी उन्हें? एमके वेणू की बातचीत ने तो मुझे झकझोर ही दिया। मीडिया को कैसे इस्तेमाल करना है, कैसे खबर करवानी है और कैसे पूरे सिस्टम से खिलवाड़ करना है, ये राय दे रहे थे महानुभाव राडिया को। एक पत्रकार होने के नाते उनका क्या यही कर्तव्य था कि वो बात बात पर मीडिया का ही मजाक बना रहे थे? सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि जो व्यक्ति खुद लॉबीइंग में जुटा हुआ है वो खुद ही मीडिया एथिक्स का भाषण भी दे रहा है। वाह वेणू जी। आप जैसे दोयम दर्जे के पत्रकार ही मीडिया का नाम रोशन कर रहे हैं। इन सभी पत्रकारों को देखकर किसी की कही एक बात याद आ रही है-

हर शख्स में होते हैं दस बीस चेहरे

जिसे देखो बार बार देखो...

अब चर्चा करूंगा एक ऐसी शख्सीयत की जो टीवी चैनलों का दामाद सरीखा है। लंदन में रहकर अपने व्यंगात्मक कमेंट्स और हाजिरजवाबी के लिए वो एनडीटीवी और टाइम्स नाउ जैसे चैनलों पर अक्सर नजर आते हैं। कभी कभी स्टूडियो में भी दिखते हैं। खुद को मैनेजमेंट गुरू और विश्लेषक कहने वाले ये महाशय हैं सुहेल सेठ। कई फिल्मों में भी नजर आ चुके हैं। देश, राजनीति और अर्थव्यवस्था को लेकर इनके भाषण सुनकर एक अच्छी सी फीलिंग आती लेकिन राडिया से इनकी बातचीत सुनकर इनका भी एक अलग चेहरा सामने आ गया। दोगलों की लिस्ट में इनका नाम भी काफी उपर ही रहना चाहिए। लगता है न्यूज को भी ये फिल्म समझते हैं। कैसे बिजनेस घरानों से संबंध मजबूत करने हैं, अपने फायदे और लॉबीइंग के लिए इन भाषणवेत्ताओं ने सारे आदर्शों, सारे मूल्यों को ताख पर रखकर पत्रकारिता को शर्मसार किया है। हालांकि यह भी जानता हूं कि ये लोग आज चोर इसलिए कहे जा रहे हैं क्योंकि इनकी चोरी पकड़ी गई है। इस बात का अंदाजा है कि मीडिया किस कदर व्यावसायिक लालचियों के इशारे पर ब्रेक डांस कर रही है। यही हाल पत्रकारों का भी है। पैसा देखकर सभी अपने अपने मूल्यों और आदर्शों को नाले में बहा देते हैं। फिर भी, चोर तो वही है जिसकी चोरी पकड़ी गई। आखिर हमारा संविधान भी तो ऐसा ही है।

भले ही ये पत्रकार अपनी नैतिक जिम्मेदारी न लें लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हम इन्हें माफ नहीं कर सकते। न ही किसी ऐसे पत्रकार को माफ करेंगे जो पत्रकारिता को कोठा समझते हैं और अपनी कलम और जुबान को निजी फायदों के लिए वेश्या की तरह इस्तेमाल करता है। अपने सवाल और बात को खत्म करने से पहले मैं इन सभी महानुभावों के लिए कुछ पंक्तियां लिखना चाहता हूं जिन्हें मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई के दिनों में कहीं पढ़ा था-

कली बेच देंगे, चमन बेच देंगे

ये फूलों भरी अंजुमन बेच देंगे

कलम के सिपाही अगर सो गए तो

सत्ता के ताजिर वतन बेच देंगे...

References:

Barkha Dutt: http://www.barkhadutt.tv/

Vir Sanghvi: http://www.virsanghvi.com/about-vir.aspx

Prabhu Chawla: http://prabhuchawla.com/

MK Venu: http://www.financialexpress.com/news/mk-venu-is-managing-editor-fe/527318/

Conversation between Radia and Venu: http://business.outlookindia.com/view.aspx?vname=Vinu-fudged%20RCOM%20figs-gas-Curse%20%on%20%AmarSingh-20090616-200515.wav and http://business.outlookindia.com/view.aspx?vname=Imp%20%MK%20Vinu-20090709-084733.wav

Conversation between Radia and Barkha: http://business.outlookindia.com/view.aspx?vname=MM%20n%20Barkha%20-20090709-161411.wav

Conversation between Radia and Prabhu: http://business.outlookindia.com/view.aspx?vname=IMP-Prabhu%20Chawla%20Gas%20judgement%20discussion-20090620-143207.wav

Conversation between Radia and Vir: http://business.outlookindia.com/view.aspx?vname=Vir-his%20letter-MDA%20interview-20090620-120959.wav

Coversation between Radia and Ganu: http://www.outlookindia.com/article.aspx?268465

Cal records of Radia: http://www.outlookindia.com/article.aspx?268214


Friday, March 11, 2011

इंतज़ार...(कहानी लिखने की एक अदनी सी कोशिश)


उस दिन सब कुछ याद आ रहा था मुझे,,,दोस्तों की बातें...वो कहते थे कि इतनी सिगरेट मत पियो,,,शराब पीना बंद कर दो,,,कैंसर हो जाएगा,,,पापा को खूब सारी खुशियाँ देनी थीं,,,मां को तीर्थस्थानों की सैर पर भी ले जाना था,,,और छोटे को...उसको एप्पल का लैपटॉप देना था पर अब क्या...अब तो सब कुछ हाथ से निकल गया न...मैंने खुद को खत्म कर ही लिया...अचानक गाल पर एक बूंद गिरी...झट से आंख खुली तो देखा मां मेरे सिरहाने बैठी मुझे देख देखकर बस रोए जा रही थीं... बगल में पापा एक कुर्सी पर मायूस से बैठे मुझे एक टक देख रहे थे... पांच साल पहले अपना शहर छोड़कर दिल्ली आया था मैं...घर से निकल रहा था तो बस इतना पता था कि उस शहर में जिंदगी नहीं है अब...ट्रेन में बैठने के पहले की सिर्फ दो चीजें याद थीं, एक मां का रोना और बार बार पूछना कि अचानक दिल्ली क्यों बस रहे हो नीरज....एक बार ठंडे दिमाग से सोच लो बेटा और दूसरा, अदिति को वो मैसेज जिसमें उसने मुझे अपनी सगाई के बारे में बताया था। और कहा था कि मुझे प्यार करते हो तो प्लीज कुछ पूछना मत, सिर्फ मुझे भूल जाओ नीरज। अदिति मेरी हमसफर थी... हर लव स्टोरी थी की तरह हमारी भी एक प्यारी सी कहानी थी, कॉलेज में मुझे उससे लव एट फर्स्ट साइट हुआ था। पूरे पांच साल हमने साथ गुजारे थे और जिंदगी भर साथ रहने का फैसला भी कर चुके थे...लेकिन एक ही दिक्कत थी, हमारी कास्ट एक नहीं थी। मैं पंडित था और वो वैश्य। उसने करीब एक साल पहले अपने घर में बात की थी मेरे बारे में...बहुत बवाल हुआ था...मैं तो डर रहा था कि कहीं...कहीं उसे कुछ....मार न दें उसके पापा। कहती थी, बहुत कट्टर हैं उसके घर वाले। अगले दिन उसका फोन आया तो मेरी जान में जान आई, वो बहुत रो रही थी लेकिन कह रही थी घर वाले मान जाएंगे, थोड़ा वक्त लगेगा। मैंने कहा था परेशान मत हो, मैं बात कर सकता हूं अगर तुम कहो तो। उसने कहा, नहीं वो तुम्हें जान से मार देंगे अगर तुमने उनसे बात की। मैंने उस वक्त कुछ नहीं कहा....मैंने कहा जितनी जल्दी हो सके तुम वापस आ जाओ। फिर वो जब शहर लौटी तो लिपटकर खूब रोई थी, कहने लगी कि मुझे डर है कि तुम खो न जाओ। मैंने सोचा था इमोशनल हो रही है, बस। और उस दिन न जाने उसे क्या हुआ था....जो उसने वो मैसेज कर दिया। लेकिन अब सब याद आ रहा था, वो बहुत इमोशनल थी न....पापा-मम्मी के आंसुओं से पिघल गई होगी। उनको बहुत चाहती थी अदिति...मुझे भी....लेकिन किसी एक को चुनना था उसे। बस उसी दिन से सिगरेट पीनी शुरू कर दी थी हिंदी फिल्मों के सैड एक्टर्स की तरह....मैं भी अक्सर प्यासा जैसी फिल्में देखकर खुद को गुरू दत्त समझ बैठता और कई दिनों तक एक ही गाना गाता रहता...जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला...और मोबाइल पर इसे रिपीट पर लगाकर सो जाता था....


घर में सभी जानते थे अदिति को...वो अक्सर घर आती थी...मां भी उसे पसंद करने लगी थीं...पापा भी...हालांकि उनकी स्वीकृति हमेशा मौन ही रहती थी लेकिन अब सबको ये पता चल चुका था कि अदिति की सगाई होने वाली है। मेरे मोबाइल का मैसेज छोटे ने पढ़कर मां को बता दिया था इसलिए सबको अंदाजा था कि मेरा ये हाल क्यों है...मैं ऑफिस जाता और आकर अपने कमरे में बंद हो जाता...दिन भर गाने सुनता रहता और कम्प्यूटर पर अपनी और अदिति की फोटो देखता रहता। रोता और बाहर जाकर सिगरेट पीकर चला आता। कभी कभी उसके एक दो गिफ्ट तोड़ देता तो अगली सुबह मां चुपचाप उसे उठाकर एक बैग में डाल देंती क्योंकि उन्हें पता था कि मैं कोई गिफ्ट फेंकता नहीं। उन दिनों दोस्तों यारों से भी मिलना जुलना बंद कर दिया था...उन्हीं दिनों मन में ख्याल आया कि क्या हुआ अगर साथ नहीं जी सके...उसकी यादों के साथ तो जी सकते हैं और लगा इस षहर में रहकर यह मुमकिन नहीं होगा. जॉब चेंज करने का मन बनाया, दिल्ली में दोस्तों से बात की और चला आया दिल्ली। ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लग रही थी...बाहर उतरकर देखा तो राजीव इंतजार कर रहा था...पहली बार दिल्ली आया था न तो रिसीव करने आया था...राजीव दिल्ली की एक इंग्लिष मैग्जीन में एसिस्टेंट एडिटर था।


मैंने प्लेटफॉर्म पर ही सिगरेट निकाली और लाइटर से जला ली तो वो भौंचक्का रह गया...कहने लगा तुझे क्या हो गया है? ये सब क्या है? तू....अबे तू कबसे पीने लगा? तुझे तो कॉलेज के दिनों में बड़ी नफरत थी न इन सब हरकतों से...मैंने उसके सवाल को धुंए के छल्लों के साथ उड़ा दिया...उसने भी दोबारा नहीं पूछा...कंधे पर हाथ रखकर बोला...ला, अपना सामान मुझे दे दे...तू थका होगा....और झट से एक बैग ले लिया। अजमेरी गेट की तरफ हम निकले और मेट्रो पकड़कर मयूर विहार में अपने रूम चले गए। वहां पहुंचकर मेरे पास कोई खास काम नहीं था...जब तक मैंने नई जॉब नहीं शुरू की तब

तक रोज सुबह राजीव चाय बनाकर ऑफिस चला जाता और मैं उठते ही चाय के साथ सिगरेट पीता और लैपटॉप में अदिति की यादों में खो जाता। शाम होते होते नहाता और फिर चाय पीकर आता। घर से रोज फोन आते सो एक दिन फोन ऑफ करके रख दिया और घर वालों से कह दिया कि मेरा फोन चोरी हो गया, जब बात करनी होगी तो मैं राजीव के फोन से ही बात कर लूंगा। नई जॉब लग गई। सेलरी अच्छी थी और काम भी कुछ खास नहीं था। मैंने शराब और सिगरेट दोनों ज्यादा कर दी, उन दिनों एक और दोस्त सचिन ने एक न्यूजपेपर ज्वाइन किया और साथ में रहने लगा...पहली बार जब उसने मुझे पीते हुए देखा तो उसके भी फाकते उड़ गए लेकिन उसे भी धीरे धीरे आदत पड़ गई। जैसे जैसे वक्त बीतता गया, मेरा जख्म गहरा होता गया, मैं जितना अदिति को भूलने की कोशिश करता, उतना ही वो याद आती, सोते जागते हर वक्त सिर्फ वो ही थी। इस बीच छोटे का एडमिशन एक इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया और उसकी पढ़ाई मेरी जिम्मेदारी बन गई। मैं घर जाता ही नहीं, छोटे को पैसे भेजकर मां और पिता जी के लिए अक्सर कुछ न कुछ भिजवा देता। एक दिन राजीव के फोन पर मां की कॉल आई....राजीव ने घर आकर मेरी उनसे बात कराई तो उन्होंने कहा कि अदिति का फोन आया था...वो बहुत परेषान थी और रोए जा रही थी। मैं परेशान हो गया और झट से अपना फोन निकालकर उसे ऑन किया और उसे कॉल करने लगा...उधर से आवाज आई....द सब्सक्राइबर यू आर ट्राइंग टू कॉल इज करंटली स्विच्ड ऑफ। मैंने अपना फोन चार्जिंग पर लगा दिया और इंतजार करने लगा कि शायद उसकी कॉल एक बार आ जाए। उसके सारे दोस्तों को कॉल की लेकिन किसी के पास उसकी कोई खबर नहीं थी। कॉल का वेट करते करते मैं सो गया और अचानक फोन बजा...मैं झट से उठा तो देखा सुबह के सात बज रहे थे...मम्मी की कॉल थी....मैंने झट से फोन उठाया और जैसे ही हैलो कहा

उधर से मम्मी जोर जोर से रोने लगीं, मैं बहुत परेशान हो गया, मुझे भी रोना आ गया और मैं बस इतना पूछ पा रहा था कि मां...मां....क्या....क्या हुआ मां? इतने में पापा ने फोन लिया और धीरे से बोले-.........बेटा नीरज....तुम बहुत मजबूत हो, प्लीज अपने आप को संभालना और कुछ गलत मत करना... अदिति ने शादी नहीं की थी....उसने कल सुसाइड कर लिया। अखबार में खबर छपी है। मेरे हाथ से फोन छूट गया....मैं सन्न रह गया था...


देखते देखते तीन बरस बीत गए। स्मोकिंग चेन स्मोकिंग में बदल चुकी थी और ड्रिंकिंग भी ज्यादा फ्रीक्वेंट हो गई थी। अब तो क्या दिन क्या रात, मौका मिलते ही मैं अदिति को भुलाने के लिए शराब और सिगरेट का सहारा ले लेता था। वक्त गुजरता जा रहा था और साथ ही मेरी तबियत भी खराब होने लगी थी, लेकिन मैंने किसी से बताया नहीं, एक दो बार दोस्तों को लगा भी तो मैंने बहाना बना दिया कि बुखार है और सिर में दर्द की वजह से आंखों के नीचे कालापन रहने लगा है। उन्हें शक तो हुआ लेकिन उन्होंने मुझपर कभी जोर नहीं डाला। तभी एक दिन खबर आई कि छोटे का कैम्पस प्लेसमेंट हो गया है। वो बहुत खुश था। मैं कुछ पल के लिए बीते चार सालों में एक बार खुश हुआ था। सुकून सिर्फ इस बात का था कि अब मां और बाबू जी को छोटे का साथ भी मिल जाएगा। मैंने ऑफिस से चार सालों में एक भी एक्स्ट्रा ऑफ नहीं लिया था। एक दिन अचानक मन हुआ कि मां और बाबू जी को तीर्थयात्रा पर ले चलूं। ऑफिस से एक महीने की छुट्टी ली और प्लान बनाया कि कल सुबह उठते ही रिजर्वेशन करवाकर शहर जाउंगा और अगले दिन फ्लाइट से सबको लेकर कन्याकुमारी और फिर एक एक करके जम्मू तक जाउंगा। रात ख़ुशी थी इसलिए और पी ली...अगली सुबह होश आया तो खुद को हॉस्पिटल के बेड पर पाया...राजीव और सचिन बगल में बैठे थे। मेरे मुंह पर ऑक्सीजन मास्क लगा था और हाथ में ड्रिप लगी हुई थी। मैंने दूसरे हाथ से सचिन के पैर पर हाथ रखा और आंखों से उससे पूछना चाहा कि डॉक्टर ने क्या कहा? उसे जाने क्या हुआ और वो सीने से लगकर रोने लगा....मैंने राजीव की तरफ देखा तो उसकी आंखों में भी आंसू छलक आए और उसने बडी हिम्मत बांधकर कहा....कैं....कैं....कैंसर। मुझे झटका लगा लेकिन अगले ही पल मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। लगा जैसे जीकर न सही, मरकर ही अदिति के साथ रह लूंगा... छोटे को बताया नहीं गया था कि मैं आईसीयू में भर्ती हूं...उसके आखिरी सेमेस्टर के एग्जाम जो चल रहे थे...मैंने ही मना करवाया था... मां और बाबूजी के लिए ही एयर टिकट भेज दिए थे दोस्तों ने सो किसी और को उन्होंने शायद बताया भी नहीं था...जरूरत भी नहीं थी। मैंने तो दोस्तों से बाबूजी और मां को भी खबर करने को मना किया था पर वो नहीं माने थे। सुबह की पहली फ्लाइट से आ गए थे। मां बार बार कह रही थी कि बेटा तुम ठीक हो जाओगे....कुछ नहीं होगा तुम्हें....आज फिर चार महीने बीत चुके हैं... अदिति से मिलने की बेसब्री बढ़ती जा रही है...डॉक्टर कहते हैं कि मेरे पास सिर्फ एक महीना और है...मां-पापा तीर्थयात्रा कर आए लेकिन छोटे के साथ और उन्हें लगता है कि नीरज ठीक हो रहा है, जल्दी ही वो पूरी तरह ठीक हो जाएगा...


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