Wednesday, December 26, 2012

बलात्कार और चीत्कार : एक युवा आन्दोलन





पिछले करीब डेढ़ साल में मैंने दो बड़े विद्रोह बहुत करीब से देखे। पहला अन्ना का और दूसरा बिना चेहरे के युवाओं का। यह चढ़ रहा है। बलात्कार के विरोध में। पहला भ्रष्टाचार को लेकर था और दूसरा खुद में स्त्री विमर्श  छिपाए हुए है। दिलचस्प ये है कि दोनों ही विद्रोह सिर्फ व्यवस्था पर चोट नहीं हैंदोनों ने समाज की जड़ों को हिलाने का दम भरा है। भ्रष्टाचार में हम सब शामिल  रहे हैं। औरबलात्कार भी कृत्य से ज्यादा  सोच और प्रथा है। जो हमारे  देश की रग रग मे बसी है। हमारी रगों में बहते खून के साथ दौड़ती है ये सोच। स्त्री दमन की। कमजोर के शोषण की। 

हमें यह समझना होगा कि बलात्कार सिर्फ शरीर का नहीं होतावो जीवन और जीने के अधिकार का होता है। ये होता आया है। इस देश की विडम्बना यही रही है। जिसके पास बल हैवो उसका दोहन करता रहा है। जो कमजोर हैवो लुटता रहा है। इस सबके बीच माध्यम वर्ग रोटी-कपडा और मकान से आगे सोच ही नहीं पाया। लेकिनइन दोनों ही विद्रोहों को देखकर लगता है कि माध्यम वर्ग जाग गया है। कुछ देर के लिए ही सही। और शायद कभी न सोने के लिए। जाग गया है। और ये देश के निजामों के लिए खतरनाक संकेत है। 

जब 16 दिसंबर  की रात देश की राजधानी में 23 साल की एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार होता हैतो आश्चर्यजनक रूप से माध्यम वर्ग (खासकर युवाओं) की नींद टूट जाती है। शुरुआत जेएनयु से होती है। प्रतिशोध की आग में लिपटे युवा सडकों पर आ निकलते हैं। पर वो किसी को हानि नहीं पहुंचाते। न राजकीय संपत्ति को और न ही पुलिस को। वे शांति से अपना विरोध व्यक्त करते हैं। प्रदर्शन करते हैं। नारे लगाते हैं। इन्हें देखकर बाकियों के भीतर दुबकी आग भी दहकती है। वो भी रातभर जागकर झंडे पोस्टर तैयार करते हैं। इसके बाद प्रदर्शन की बाढ़ आती है। इंडिया गेट पर बिना चेहरे के प्रदर्शन होते हैं। सिर्फ एक आवाज। सिर्फ एक नारेसिर्फ एक मांग के साथ। बलात्कारियों को फांसी। तीन दिन तक ये आन्दोलन  चलता  है। बढ़ता है। और रायसीना तक पहुँचता है। देश के दिल पर शायद ये पहला युवा आदोलन है। इंडिया गेट से लेकर नॉर्थ ब्लॉक तक इस मांग की चीख पहुँचती है। वहां प्रदर्शन उग्र रूप लेता हैऔर उसका फल भुगतती है पुलिस। हाँ पुलिस। क्यूंकि मैं ये नहीं मान सकता कि जो युवा शांति से प्रदर्शन कर रहे थेवो अचानक तोड़ फोड़ करने लगे। जाहिर तौर पर उनमें कुछ असामाजिक तत्त्व शामिल थे। (जो राह चलती लड़कियों को छेड़ते हैं। जो मा-बहन को गाली बना चुके हैं। जो बात-बेबात पे माँ और बहन का शाब्दिक बलात्कार करते हैं।) जिन युवतियों को चोट आईवो गलत था लेकिन शुरुआत पुलिस ने नहीं की। पुलिस ज्यादा ही बर्बर हो जाती है। और उनमें भी कई पुरुषवादी मानसिकता के  शिकार होते हैं।  वे अपनी बेटियों पर डंडे भांजने में कोई कोताही नहीं करते। वे घर में भी नहीं करते। दूसरी तरफनिज़ाम भी आवाज़ सुनना नहीं चाहतेदेखना चाहते हैं। एक ऐसा चेहराजिससे वो समझौता कर सकते। फिर ये निज़ाम रोटी फेंकते है। जिस पर लिखा होता है, ''एक चेहरा चाहिए''। हमारे देश की भूखी मीडिया टूट पड़ती है उस रोटी पर।    

फिर पुरुषवादी सोच से ग्रस्त मीडिया खेल रचता है। आन्दोलन को भटकाने की पूरी कोशिश शुरू हो जाती है। इससे उम्मीद भी क्या होगी। जिस मीडिया की  स्क्रीन पर महिला की जर्जर तस्वीर चस्पा हो। जिसकी सोच में महिला लज्जा का पात्र होजिसकी नज़र में महिला दयनीय होवो क्या  करेगा।  इस आन्दोलन की चीख उनके कानों को चीरती रहीलेकिन उन्हें कोई चेहरा चाहिए था। जो कैमरे पर साक्षात दिखे। जो उनसे बात करे। और उन्होंने कर दिखाया। रविवार को इंडिया गेट और विजय चौक पर चेहरे पहुचे। राजनीतिक रंग में लिपटे। लालहरे और भगवा में सने चेहरे। वो चेहरे भी नहीं दिखे लेकिन उनके वहां होने का हश्र दिखा। राजकीय संपत्ति जलीआन्दोलन की आवाज दब गई और उग्र चेहरा दिखने लगा। हर तरफ आग और तोड़फोड़। निश्चित ही ये वो युवा नहीं थाजिसने विद्रोह शुरू किया था। फिर क्यासब पर लाठियां बरसीं। क्या महिलाक्या युवती और क्या पत्रकारसब  चोटिल हुए। और मुद्दा तितर बितर हो जाता है। कुछ पल के लिए। या फिर शायद अनिश्चितकाल के लिए। इस विद्रोह में एक पुलिस वाले की मौत भी हो गई है। 

युवाओं को इस विद्रोह को जिन्दा रखना होगा। मध्यम मार्ग से अपनी आवाज़ निजामों तक  पहुंचानी होगी। बदलाव सुनिश्चित है। लेकिनहिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा। जहाँ तक सफदरजंग में पड़ी उस लड़की का सवाल हैतो उसकी ज़िन्दगी कोई नहीं  लौटा सकता। न आपन कोई कानून और न ही कोई सरकार। इस देश में हर मिनट करीब 22 बलात्कार होते हैं। उनकी सुध कोई नहीं ले पाता। कानून सख्त होना जितना जरुरी हैफांसी की सजा जितनी जरुरी है, उतनी  ही जरुरी है अपनी सोच में बदलाव। और ये बदलाव कोई कानूनकोई प्रदर्शन नहीं ला सकता। ये आपके घर से होगा। 

Thursday, November 1, 2012

क्यूं?



चांद ये सुर्ख सा क्यूं हैं
क्यूं बेसुब जर्द है सूरज
कदम आहिस्ते रखता हूं
निशां गुमनाम सब क्यूं हैं

क्यूं धरती बह रही है यूं
समंदर थम गए क्यूं हैं
आसमां देखता मैं हूं
धुआं बेरंग सा क्यूं है

मकां क्यूं ढह गए सारे
क्यूं दुकानें बिक रही हैं ये
नजरें बंद करता हूं
ख्वाब ये जागते क्यूं हैं

सुबहें नींद में क्यूं हैं
क्यूं ये शब जागती हैं
खोजता रात भर मैं हूं
शमा के राज क्यूं गुम हैं

क्यूं ये तनहाई बोलती है
शोर खामोश से क्यूं हैं
फिरता मैं अकेला हूं
हमसफर भीड़ क्यूं गुम है

बारिश सूखी हुई क्यूं है
क्यूं हवाएं भीगी हैं
रोना चाहते है वो
आखें बंजर मेरी क्यूं हैं

पंछी पिंजरों क्यूं हैं सब
क्यूं चुपचाप हैं डालें
मंजिल को चले हैं वो
दोराहे मेरे क्यूं गुम हैं

ख्वाहिश लापता क्यूं है
क्यूं जुम्बिश में खलिश सी है
रातें जागते वो हैं
नींदें मेरी क्यूं गुम हैं ।।

-------निखिल श्रीवास्तव 


Friday, September 28, 2012

कि कोई दूसरा जहाँ भी होगा...

फोटो गूगल से साभार 

न मिली 
नींद भर जमीं, धूप भर 
आसमां न मिला 
खामोश रहे वो शायद  
कि कोई दूसरा जहाँ भी होगा....

न किये 
तकादे खुदा से, किस्मत से 
हिसाब न माँगा 
गम पी गए वो शायद
कि कोई दूसरा जहाँ भी होगा... 

न मांगी
सुबह खुशियों की, रातों से 
आस न मांगी 
पड़े रहे किनारों पे शायद 
कि कोई दूसरा जहाँ भी होगा

न देखे 
ख्वाब सोने के, तश्तरी 
चांदी की न चाही
पिघलते रहे वो भट्टों में शायद
कि कोई दूसरा जहाँ भी होगा 

जलते रहे 
ज़िन्दगी भर, तपिश से 
दूर न भागे, मौत भी 
आ गई लेकिन, खुदा से राख न मांगी 
शायद उन मजदूरों के लिए 
कोई दूसरा जहाँ भी होगा ....

Saturday, September 22, 2012

कुछ सवाल

गूगल से साभार 

क्यूँ हैं
ये मायूस सी गली 
गुमसुम सा चाँद
हांफती सड़क पे रेंगते निशान...

क्यूँ है
ये तड़पती सी हवा 
अनजान सी  सिरहन 
कोसते सफ़र पे बेजुबान धडकन...

क्यूँ हैं...
ये चीखते से जश्न  
दरकते से तख़्त 
सूखती नसों पे सिरफिरा वक़्त... 

क्यूँ हैं, 
ये उजड़ता सा लम्हा
खटकता सा अश्क 
हमारी चाहतों पे लिपटता रश्क... 

क्यूँ हैं,
ये उदास सा मौसम 
बदहवास सा दर्द 
चटखती ज़िन्दगी पे ये आहें सर्द....

Friday, March 30, 2012

कौन हैं वो

फोटो गूगल से साभार 
कौन हैं वो 
जो कहते हैं 
खुद को "झूठे"  
सच का अनुगामी 

कौन हैं वो 
जो कैद हैं 
कई "धाराओं" में
बनके अनुयायी

कौन हैं वो 
जो देखते हैं 
हर एक "इज्म" में 
अपना प्रतिबिम्ब 

कौन हैं वो
जो ठोकते हैं 
हर "काल" में 
अपनी बेसुरी ताल

कौन हैं वो 
जो करते हैं
हर "कारिता" में 
अद्भुत चाटुकारिता 

कौन हैं वो 
जो करते हैं 
हर रोज़ क़त्ल 
किसी ख्वाब का 

और कौन हैं वो 
जो समर्थ हैं
पर मौन हैं, बंद 
डर के दरवाजों में 

कौन हैं वो 
जो लिखते हैं 
दर्द, प्यास, भूख से 
आच्छादित आकाश में... 

---निखिल श्रीवास्तव--- 

Sunday, March 11, 2012

An open letter to Rahul Dravid


Photo: Google 

Dear Dravid,

First of all let me clarify that I didn't doubt your talent even in the worst moments. You were impeccable! But, red cherry had started making making room between your pads and the bat easily. Your defense was not looking that rock solid (which it was known for). May be it was too old to face the new generation of fast and furious bowlers. Your shots also were not consistent. And above all, the charisma of your batting was missing. So, it was your time to say goodbye. And, let me tell you that I wanted it badly. However, you took a little more time than I had expected. I didn't want to see you hitting ground with your bat or shaking your head in disappointment anymore after getting ''Bowled'' or ''LBW''.  I was really not enjoying it. 

I have been a fan of yours since my school days. To such extent that, I used to beat my younger brother when he called you ''a slow poison''. I would tell him that you are an exception. And, he realized your class gradually. I would bunk classes just to watch you playing...just to admire your cracking cover drives...your solid straight drives, just to listen to your low yet soothing voice at presentation ceremonies. The way you batted all these magnificent years, the way you lead your innings braking records one after another, the way you stood like a wall and saved Indian cricket team many times, the way you pulled controversies over mid wicket, the way you held your nerves in difficult times and the way you made a come back like a volcano. Everything will always be in my memories forever. 

People may call you ''The Wall'' or ''Mr. Perfectionist'', but my view is little different about you. You stood like a strong wall in many crucial situations but I also remember many bowlers hitting your bails off. You are known for your solid defence but I can't forget those enumerable moments when your bat missed easy balls. Just for consolation, I would tell myself that no one is perfect so isn't Dravid. For this reason there was no point calling you Mr. Perfectionist as well. But, I must admit that you did teach me and many others ''the perseverance''.  In my candid view, you were an exception in every manner, you are an exception and you will always be an exception (hoping that you will remain same).  

When you entered the Lord's for the first time, you were calm, serious and focused unlike many other youngsters who loose their senses after hitting the ground for the very first time. Some would say that you couldn't play fast but you proved everyone wrong with that fast and furious knock of 154* against New Zealand. And, you proved me right that you were an exception. That decision of yours, to declare the Indian innings against Pakistan when  Sachin Tendulkar was only 6 short of his double century, raised many eyebrows but again you were very calm. In such a situation, you were an exception. In more than one and half decade, almost all your contemporary players succumbed to one or the other controversy, but you managed to stay clean. That's where you were so exceptional. You never beat or abused anyone, you were never in news for bad reasons. That's where you were so exceptional. You played more and talked really less. That's where you were so exceptional. 

As we say, All's Well That Ends Well! I am so damn glad that you have bid adieu to domestic and international cricket. Thanks a lot for retiring at the  right time. However, I wanted you to retire like Michael Bevan and Damien Martyn. Nevertheless, you have proved that it is always better to walk off before anyone starts criticizing you. The Bengal Tiger didn't realize this small thing and I (as a die hard fan of his) was ashamed every time he got embarrassed. You have shown that it is always better to walk off when you are on a high. That's the pride of a real player.

Sunday, February 26, 2012

वो और मैं...



फोटो गूगल से साभार 

वो देता गुमशुदा यादें/
मैं कलम में जस्ब कर लेता//

वो सिरहाने तनहाइयाँ रख जाता/
मैं पुरवाइयों में बहा देता//

वो दिन में बेचता सपने/
मैं उम्मीदें भी चुरा लेता//

वो अँधेरे बेपनाह देता/
मैं उन्हें रौशनी से रंग देता//

वो छीन लेता नींद रातों  की/
मैं किताबों से दोस्ती कर लेता//

वो बदलता रास्ता खुशियों का/
मैं उनका सफ़र खुद तय करता//

वो देता मुझको बेबसी/
मैं खुदी का क़त्ल कर लेता//

वो दिल में दर्द रख देता/
मैं दिल से मुंह चुरा लेता//

वो मुझको तोड़ता रहता/
मैं दिनबदिन बनता ही जाता//

खुदा कहते हैं गर तुझको/
हम भी मुकद्दर के सिकंदर हैं//

खुदाई तेरी देख ली मैंने/
वादा है, जब मिलेंगे
हम भी सवाल पूछेंगे//

-----निखिल श्रीवास्तव-----

Wednesday, February 15, 2012

दफ्तर से तुम्हारे हॉस्टल की वो दौड़



फोटो गूगल से साभार 

जाने क्यूँ...
आज याद आ रही है 
दफ्तर से तुम्हारे हॉस्टल की वो दौड़ 

वो शीशे-संगमरमर का ताजमहल, 
चंद पन्नों में प्यार को समेटने की वो होड़
वो उम्र से आगे भागते सपने 
दिल से दरकती वो धड़कन...

वो ऑटो की किचकिच, सड़कों पे शोर 
हमारी आशिकी का वो सुनहला सा दौर
वो रूठना तुम्हारा, मेरा कहना वंस मोर 
मेरी मैटिनी शो की वो प्लानिंग 
तुम्हारा कहना, च्वाइस इस योर्स 

जाने क्यूँ...
आज याद आ रही है 
दफ्तर से तुम्हारे हॉस्टल की वो दौड़ 

वो वेलेंटाइन्स डे की भोर,
और मेरे सेल फोन का वो शोर  
वो मिस काल की लिस्ट में, 
प्यारा सा तुम्हारा वो नाम हर ओर...
वो मानाने की तुमको कोशिश पुरजोर 
गुस्से में तुम्हारा कहना 
यु डोंट लव में एनीमोर 

जाने क्यूँ...
आज याद आ रही है 
दफ्तर से तुम्हारे हॉस्टल की वो दौड़ 

Friday, January 20, 2012

सोते रहो हे मतदाता महान...


फोटो गूगल से साभार 

हे मतदाता महान,
फिर से छिड़ चुका है चुनावी संग्राम.
तुम बदल सकते हो जहान,
लेकिन क्योंकि तुम वाकई हो सूबे के मतदाता नादान,
इसलिए तुमसे कोई नहीं है हलकान!
देखो तुम कितने हो भोले-अनजान,
कि मैदान में फिर उतरे हैं प्रत्याशी अपराध के पर्याय समान!
फिर से तुम्हारे गली-दालान में गूंज रहे हैं बाहुबलियों के गुणगान!
अब भी तुम बंद रखना अपने कान.
नहीं रुकेगा तुम्हारा काम!

वोट डालना हो जिस दिन, तुम उस दिन करना आराम!
बने रहना तुम आम!
बड़े जतन से बन पाए हो तुम विद्वान,
सो मत करना खुद को बदनाम!
जागने का तो तुम मत लेना नाम,
ताकि, इस बार भी जीत जाए कोई प्रत्याशी बलवान!
अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, अमरमणि त्रिपाठी,
विजय मिश्रा जैसे अपराधियों की फौज को तुम ठोकना सलाम!
विधानसभा में लगने देना तुम लाल निशान.
फिर से चढऩे देना अपराध को परवान!
अच्छा है, सोते रहो,
सूबे के मेरे मतदाता महान!

नाराज न हो तो अब पूछ लूं तुमसे कुछ यक्ष प्रश्न यजमान!
क्या तुम वाकई हो सच से अनजान?
या तुम हो कुछ ज्यादा ही होनहार बिरवान?
छोटे-छोटे काम के लिए कब तक देना चाहते हो रिश्वत रूपी लगान?
वो जेल से लड़ते हैं, वो इज्जत लूटते हैं,
वो हत्या करते हैं, वो सूबे को लूटते हैं,
वो ही हैं जो खाते हैं तुम्हारे खेत-खलियान,
वो ही तो हैं जिससे है तुम्हारा सूबा बदनाम,
फिर भी आखिर क्यों दिलाते हो तुम उनको मनचाहा मुकाम?
क्यों कर रहे हो सूबे का काम तमाम?
तुम्हें अंदाजा है कि क्या होगा इसका अंजाम?

हे मेरे सूबे के मतदाता महान!
मत करो जम्हूरियत का अपनान.
जवाब देना है तो कूड़ेदान में थूक दो मुंह में रखा पान.
या इसके लिए भी टीवी पर बोलें आमिर या शाहरुख खान?
मत लो जम्हूरियत का इम्तेहान.
रहने दो इस देश को महान.
बेशकीमती 'मत' को यूं ही मत दो तुम दान.
पांच साल बाद आया है ये मौका, बाद में मत लगाना तुम हम पर इल्जाम...
मत कहना कि हमने नहीं बजाया था अलार्म.
एक गलती का भुगतोगे पांच साल परिणाम...
निद्रा के अनुगामी हे मतदाता महान,
भूल चूक माफ, तुम्हे मेरा शत-शत प्रणाम...

(मतदाताओं से नहीं है मेरा कोई बैर,
लेकिन चुनाव नहीं जीता जाता उनके बगैर.
और ऐसे में जब जीत का परचम फहराते हैं लुटेरे-लाखैर,
तो हक है मुझे भी अपनी बात को कहने का,
आखिर मैं भी नहीं हूं कोई गैर.)
(द संडे इंडियन में प्रकाशित) 

Monday, January 16, 2012

गली-गली में "कोच" है...

फोटो महज सिम्बौलिक है. गूगल से साभार. 

जैसे बारिश के मौसम में जगह-जगह केंचुए निकल आते हैं वैसे ही क्रिकेट के मौसम में गली-कूचे से लेकर, रेल, बस और मेट्रो तक में "क्रिकेट के कोच" नजर आने लगते हैं. इन कोच की फेहरिस्त में वरीयता, पैमाना और अनुभव जैसा कोई मानक नहीं लागू होता. इस "क्रिकेटिंग" मौसम में बच्चे से लेकर बूढ़े तक, कोई भी कोच का भेष धारण कर सकता है. ऐसा लगता है कि भारत के किसी भी बच्चे को ए,बी,सी,डी...का ज्ञान हो न हो, लेकिन मानो वह अभिमन्यु की तर्ज पर क्रिकेट तो मां की कोख से ही सीख कर आता है. और शायद यही वजह है कि क्रिकेट के बारे में टिप्पणी करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है. ऐसे में, जब भारत बुरी तरह पिट रहा हो, वो भी ऑस्ट्रेलिया जैसी किसी धुर विरोधी टीम से और पर्थ जैसी पिच पर तो आलोचना बेहद अहम हो जाती है. लोग खाना-पीना भूल सकते हैं, लेकिन मैच का आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं. बच्चा-बच्चा सचिन, द्रविड़ और सहवाग के शॉट पर  अनोखा ज्ञान दे देता है. जिन्हें सही से फल्ली घुमाना तक नहीं आता, उन्हें भी चौराहा मेनटेन करने का बहाना मिल जाता है और वे भी अपने-अपने नुक्कड़ पर पनवाड़ी की दुकान पर क्रिकेट एक्सपर्ट नजर आते हैं. 

गेंदा-फल्ली के इस मौसम में घर का माहौल भी कुछ अलग ही होता है. देश-दुनिया में क्या हो रहा है, लोगों को इससे सरोकार नहीं होता, हर कोई गेंदा और फल्ली के इस विचित्र खेल का विश्लेषण करता दिखता है. किस बॉल को फाइन लेग पर खेलना है और किसे स्क्वॉयर कट करना है, किस बॉल को मिड ऑन पर खेलना है और किसे डिफेंस करना है, यह चर्चा गली-गली में आम हो जाती है. खास बात यह है कि हर चर्चा में मानो कई कोच अपनी राय देते हैं और चर्चा कभी-कभी तो जूतम-पैजार तक जा पहुंचती है. अब तो यह चर्चा सोशल नेटवर्किंग पर भी दिन-रात छाई रहती है. क्रिकेट के एक से बढक़र एक सो कॉल्ड धुरंधर विद्वान भोर में उठकर ही टीवी के साथ फेसबुक और ट्विटर लॉग इन कर लेते हैं. और फिर शुरू होता है सोशल नेटवर्किंग पर मैच का लाइव प्रसारण विद एक्सपर्ट ओपिनियन. द्रविड़ जैसे किसी ग्रेट वॉल के पैड और बैट के बीच से बॉल अंदर चली जाए और गिल्लियां बिखरे दे तब तो पूछिए ही मत. कोई कहता है कि एल्बो सही डायरेक्शन में नहीं था तो कोई उस गेंद को महा रद्दी करार देते हुए बताता है कि इस बॉल पर तो सीधे बॉलर के सिर के ऊपर से सिक्स जडऩा चाहिए था. कोई द्रविड़ को गड्ढा कहता है तो कोई बड़ी संजीदगी से इसे उम्र का तकाजा कह कर उन्हें रेस्ट की एडवाइस दे देता है. सहवाग, गंभीर और धौनी गलती से स्लिप में कैच थमा बैठे तो मानो पाप हो गया हो. क्रिकेट के कुछ अंधभक्त तो गुस्से में रिमोट या ग्लास टाइप की कोई चीज तक तोड़ देते हैं.

सोचता हूं कि गली-गली में कोच का आखिर माजरा क्या है. फिर मैं भी घर का बुद्धू बक्सा खोलता हूं. खबरिया चैनलों पर क्रिकेट मंडी लगी पाता हूं. हर चैनल ऐसे उछलता है कि उनका एक्सपर्ट पैनल सबसे बेहतर और अनुभवी है. पहले चैनल पर मनिंदर सिंह नजर आते हैं, दूसरे पर अतुल वासन और तीसरे पर आकाश चोपड़ा जैसे सो कॉल्ड क्रिकेट एक्सपर्ट. मनिंदर सिंह 9वें नंबर के खिलाड़ी थे, अतुल वासन भी बॉलर थे और आकाश चोपड़ा फिर भी थोड़ा खेले लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में ज्यादा कमाल नहीं दिखा पाए. बहस भी बड़ी मजेदार होती है. एक पर सचिन की टेक्नीक पर तो दूसरे पर राहुल के डिफेंस और शॉट सेलेक्शन पर और तीसरे पर धौनी की कैप्टंसी पर. देखा-देखी, कुछ ऐसी ही चर्चाएं शुरू हो जाती है गली-कूचों में. वास्तव में यही करते आए हैं खबरिया चैनल. वे मामला इतना गर्म कर देते हैं मानो विश्व युद्ध छिड़ा हो. लोग भी ऐसे ही गर्मा जाते हैं. कुछ तो स्कूल-ऑफिस से गोला मारते हैं और फिर बाद में पछताते हुए टीम इंडिया और उसके धुरंधरों को कोसते फिरते हैं. सच कहूं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खूब पुण्य कमा रहा है. जो क्रिकेट में खुद कोई मुकाम हासिल नहीं कर सके, उन्हें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने रोजगार मुहैया कराया है. शायद यही वजह है कि कूड़ा-करकट परोसते जाने के बादवजूद टीआरपी बटोरे जा रहा है. इतना ही नहीं, कभी-कभी तो प्रिंट मीडिया पर भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भूत सवार हो जाता है. अब, पर्थ में अनर्थ जैसा क्या हुआ? ये मेरी समझ से परे है. माना कि हार ज्यादा ही शर्मनाक थी, लेकिन अनर्थ! ये कब और कैसे हुआ?

इस पूरी कवायद, टीका-टिप्पणी, आरोप-प्रत्यारोप, ओपीनियन-एनालिसिस के बीच एक चर्चा हमेशा दब जाती है. एक सुलझी हुई बहस जिसमें एक्सपर्ट पैनल खुद अनुभवी हो और जरूरी बातों पर मंथन हो. मेरी नजर में, जिन खिलाड़ियों पर हम सवाल उठाते हैं...वे ही हमारे तीर हैं, बाकी तो तुक्के हैं. इन खिलाड़ियों को भी अपनी महानता बनाए रखनी है और दादा (सौरभ गांगुली) जैसा हश्र नहीं करवाना है तो अच्छा प्रदर्शन करते हुए इस खेल को अलविदा कहें. देश के गली-कूचों के सभी "कोचों", खबरिया चैनलों के खतरनाक क्रिकेट विश्लेषकों और गावस्कर जैसे दिग्गजों से बस छोसी सी गुजारिश है...सचिन के सैकड़े का इंतजार हमें भी है, लेकिन उससे हर पारी में शतक की उम्मीद लगाकर बैठना सही नहीं है. खिलाड़ियों की पूजा भले कीजिए लेकिन भगवान मानने की भूल मत कीजिए, क्योंकि इससे निराशा ही हाथ लगनी है...और फिर खामखा हंगामा पूरे देश में हो जाता है!!
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