Wednesday, March 6, 2013

देर आयद दुरुस्त आयद- फेसबुक तुस्सी ग्रेट हो!

फोटो गूगल से साभार


मन शांत और विचार सधे से लग रहे हैं। इसलिए, मेरा नया साल आज है। हर साल की तरह इस साल की पहली रपट पेश कर रहा हूँ। 

खास बात ये है कि हर बार की तरह इस बार भी ये सोचने की जरुरत नहीं पड़ी कि  विषय क्या हो। विषय मेरे साथ-सामने है। गूगल क्रोम ब्राउजर के दूसरे टैब में। फेसबुक। 

कई लोगों के लिए यह बीमारी, लत या विकार होगा, पर मेरे लिए ये दुनिया का प्रतिबिम्ब है। दुनिया, जीवन और समाज के हर पहलू का एक समाजशास्त्र है और ये फेसबुक उसका शॉर्ट हैंड-शॉर्ट कट। पिछले करीब दो साल से इसका खूब दोहन किया है। लेकिन, कहीं कोई जिक्र नहीं। सोच कर ही ''खर्राब'' लग रहा है। ये तो सरासर नाइंसाफी है। खैर, कहते हैं न… देर आयद दुरुस्त आयद।   

दरअसल, मैंने हमेशा से माना है कि मेरे अधकचरे बौद्धिक-सामाजिक विकास में फेसबुक का अहम् योगदान रहा है। कई बेहतरीन, ख़राब, सहिष्णु, कट्टर, मूर्ख और विद्वान लोगों से मुलाक़ात हुई है यहाँ। समय भी ख़राब हुआ है। लेकिन, देश-दीन-दुनिया के बारे में काफी समझ भी बढ़ी है। अगर कुछ खास उपलब्धियों की बात करूँ तो राहुल पंडिता, सुरभि गोयल, नीलेश मिश्रा, रवीश कुमार, उदय प्रकाश, विनीत, मिहिर, रंगनाथ, स्नेह और संजय श्रीवास्तव जैसे कई मिली-जुली प्रतिभाओं वाले लोगों से बात-मुलाक़ात हुई। कुछ के साथ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से काम करने का मौका भी मिला। इनके जो चेहरे पहले देखे, बाद में उसके रंग भी देखने को मिले। 

चेहरों के इतर, दिल्ली की तंग गलियों में रहते हुए अविनाश के अच्छे-बुरे मोहल्ले में भी आना जाना लगा रहा। शिव कुमार बटालवी और सुशीला रमन के संगीत से भी फेसबुक ने ही मिलाया। शोभा गुर्तु और सोना महापात्र से भी। कई किताबें सिर्फ इसकी वजह से ही पढने का मन बना। ओपन और तहलका को नियमित रूप से पढने का सिलसिला या शौक भी इसकी ही मेहरबानी है। कई स्तम्भ ऐसे हैं, जिनका बेसब्री से इंतज़ार रहता है। 

फेसबुक का सबसे बड़ा फायदा क्या रहा? ये कहना तो थोडा मुश्किल है, लेकिन सच कहूँ तो एक नौकरी मिली वो भी ऐसे वक़्त में जब भयंकर गर्मी थी और दूर-दूर तक महज मृग मरीचिका नज़र आ रही थी। जी हाँ, नौकरी वाकई बड़ी चीज़ है। ये न हो, तो कोई ज्ञान पसंद नहीं आता। न ही कोई संगीत। इसलिए, शुक्रिया फेसबुक। 

वैचारिक तौर पर इसने हमेशा मुझे चुनौती दी है। मैं खुद को खुशनसीब समझता हूँ कि ऐसा हुआ। हालाँकि, मेरे एक दोस्त-शुभचिंतक अक्सर कहते हैं कि तुम दोगली बात करते हो। मैं कहता हूँ, आखिर क्यूँ न करूँ? अगर मुझे नयी सोच मिलती है और वो मेरी सोच से बेहतर है तो मैं क्यूँ न उसका समर्थन करूँ। और, सच कहूँ तो इस किताब में विचारों, विश्लेषणों और नजरियों का जखीरा है। आप जितना पढ़ते हैं, उतना ही आपकी सोच, आपके विचार परिष्कृत होते हैं। 

जाहिर तौर पर यहाँ सब अच्छा नहीं है, घटिया बातें भी मजे से होती हैं। घटिया सोच और मकसद के साथ। वो सब भी पढ़ा, देखा और सुना है। ये जरुरी था, है और रहेगा। फरक करने की क्षमता शायद इसी से विकसित होती है। और संतुलन भी तो जरूरी  है। परफेक्शन न संभव है न ही जरूरी। 

क्यूंकि इसके साथ मीडिया शब्द जुड़ चुका है तो इसका चरित्र भी बदला है। सनसनी है और संवेदना भी और इसकी अतिशयोक्ति भी है। लेकिन, जानकारियां भी बहुत हैं। कुछ नया मिल ही जाता है हर कुछ दिन पर। आज ही ऐसा कुछ हुआ जिसने मुझे झकझोर दिया। तहलका में ''संघ का मुस्लिम प्रेम'' शीर्षक से प्रकाशित एक लेख ने बता दिया कि मुझे संघ के बारे में बहुत कुछ नहीं पता, जबकि मैं संघ से लम्बे समय से जुड़ा रहा हूँ। खैर, पढने के बाद कई सवाल मन में हैं। 

जल्द ही पूछता हूँ, अगली रपट में... 
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